कपाल (माथा) और भाती (प्रकाश) दो शब्दों के संयोग से कपालभाती बना , जिसका मूल अर्थ है मस्तिष्क के अगले हिस्से को प्रकाशित करना । यहाँ पर प्रकाशित करने का तात्पर्य है उसकी शुद्धि करना । सामान्यतः मस्तिष्क के अगले हिस्से को माथा समझा जाता है किंतु मेरे अनुभव में यहाँ पर इसका मूल तात्पर्य है इंद्रियाँ, विशेष करके आँख और नाक । आँखो के ऊपर उसके दोनों भौं का क्षेत्र और दोनों भौं के मध्य तीसरे नेत्र (भ्रूमध्य) का क्षेत्र भी सम्लित है । नाक के क्षेत्र में नाक की शुरुआत अर्थात् भूमध्य से लिया जाता है जिसे तीसरा नेत्र कहा जाताहै । भ्रूमध्य से लेकर नाक के अंतिम क्षोर तक कपालभाती का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है ।
इसी दोनों क्षेत्रों के आस पास ही ऐसे ख़ाली स्थान है जिसे साइनस का क्षेत्र भी कहा जाता है । इस साइनस वाले पूरे क्षेत्र में कफ व flem भर जाता है जिससे व्यक्ति की इंद्रियाँ ही नहीं बल्कि उसके मस्तिष्क में प्राणवायु की कमी होने लगती है ।
हठ योग में कपालभाती एक ऐसा अभ्यास है जो मस्तिष्क के इसी अगले हिस्से जो धीरे धीरे कफ व फ़्लेम से भरा हुआ होता है , उसमें प्रकाश डाल कर उसे गला देने का कार्य करता है । यह उसी क्षेत्र में गर्मी पैदा करके उस पूरे क्षेत्र की सफ़ाई कर देता है ।
ध्यान दें नासिका के प्रारम्भिक जगह अर्थात् भूमध्य व माथे में टीके की जगह से लेकर नाक के दोनों छिद्रों के हर एक स्थान पर प्राण संचार केंद्र को सक्रिय व ऐक्टिव कर देता है । जिसके कारण उन सभी बीमारियों से बचा जा सकता है जो अत्यंत ही गम्भीर होती हैं । उन सभी बीमारियों से भी बचा जा सकता जिसमें मस्तिष्क व देह को कफ़ अंदर ग्रहण करने की आदत होती है ।
चूँकि अत्यधिक कफ़ की प्रधानता होने के कारण कुछ व्यक्ति नासिका से प्राण का संचार कम कर पाते हैं जिससे शरीर में ऊष्मा व गर्मी का संतुलन बिगड़ जाता है । विशेष करके इंद्रियों के क्षेत्र में व उसके आस पास ऊष्मा व प्रकाश का विद्यमान होना अति आवश्यक होता है । यदि यह ऊष्मा आवश्यकता से कम होती है तो मस्तिष्क ही नहीं बल्कि शरीर में प्रमुख अंगों पर इसका भिन्न भिन्न दुष्प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हो जाता है । इसीलिए हठ योग विज्ञान में डीटॉक्सिफ़िकेशन के लिए कपालभाती के अभ्यास पर ज़ोर दिया गया ।
जहां तक इसके अभ्यास का प्रश्न है तो इसका अभ्यास पेट से किया जाता, इसमें साँसों को थोड़ी मात्रा में झटके से बाहर करते हुए पेट को अंदर थोड़ा सा पिचकाया जाता है । और साँसों को सामान्य रूप से अंदर लेकर पेट को सामान्य अवस्था में कर दिया जाता है । कहने का अर्थ है कि झटके से साँस बाहर करते हुए पेट को पिचकाना है और साँसों को सामान्य गति से अंदर लेते हुए पेट को सामान्य करना है । कहने का मूल अर्थ है इस क्रिया में साँसों को बाहर निकालने में प्रयत्न व झटके का इस्तेमाल किया जाता है और साँसों को अंदर लेने में कोई भी प्रयत्न नहीं करवाया जाता है । इस प्रक्रिया से इंद्रिय क्षेत्रों और साथ साथ देह के कई अंगों में गर्मी व ऊष्मा की वृद्धि करवायी जाती है जिससे इंद्रियों के आस पास क्षेत्र की सफ़ाई होती है ।
यह क्रिया कुछ ऐसी ही है जैसे सामान्य रूप से जुकाम में छींकने की क्रिया करते है । अत्यधिक जुकाम होने पर शरीर की प्रतिरोधक शक्ति छींकने की क्रिया शुरू करवा देती है जिससे शरीर के अंदर साइनस की क्षेत्र में कफ व फ़्लेम की मात्रा जो इकट्ठा हो जाती है उसे आसानी से निकाला जा सके । अत्यधिक मात्रा में इकट्ठा होने वाले कफ को इस अभ्यास के माध्यम से निकाला जाता है तभी व्यक्ति की इंद्रियाँ विशेष करके आँखें और नासिका जिसमें हमेशा भारीपन महसूस होता रहता है , उसमें हल्कापन आ जाता है ।
यहाँ पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है कि आँखों और नासिका में ऊष्मा की कमी से मस्तिष्क में कई रोगों के आने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं ।
विशेष बातें-
यह अभ्यास उन्हीं व्यक्तियों के लिए सर्वाधिक लाभकारी है जिनकी नासिका क्षेत्र में कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जो प्राण के संचार के माध्यम से देह में ऊष्मा का संतुलन नहीं कर पा रही हैं ।
नासिक के अंदर के क्षेत्र में साँसों को बाहर जब झटके से निकाला जाता है तब गर्मी पैदा होती है और उससे मस्तिष्क में राज और प्राण का संचार बढ़ता है ।
नासिका से सम्बंधित समस्या ही नहीं बल्कि गले से सम्बंधित समस्याओं का भी निराकरण हो जाता है ।
इसका अभ्यास उन व्यक्तियों को अधिक करना चाहिए जिन्हें अवशोषण की आदत है । विशेष करके उनको जिनका देह, पानी को साइनस के क्षेत्र में ही आवश्यकता से अधिक अवशोषित करती है । ऐसे लोगों का मस्तिष्क सामान्यतः चंद्रमा से अधिक प्रभावित होता है और उनमें भावनाओं को भी भरने की आदत होती है ।
Copyright - by Yogi Anoop Academy