जैसा कि पहले मैं बता चुका हूँ कि कपालभाती एक ऐसा प्राणायाम है जो कपाल व साइनस के उस क्षेत्र में ऊष्मा को सक्रिय करता जिसमें आवश्यकता से अधिक आर्द्रता (humid) बढ़ गयी होती है । इस ख़ाली क्षेत्र में एक सीमा तक आर्द्रता रहने पर ऑक्सिजन की अब्ज़ॉर्प्शन व्यक्ति के अंदर सबसे अधिक होती है । और उसकी इंद्रियाँ स्लो डाउन भी नहीं होने पाती हैं ।
मेरे अपने अनुभव में साइनस के क्षेत्र के ख़ाली होने का अर्थ प्रकृति द्वारा की गयी भूल नहीं है , मूल सत्य यह है कि इंद्रियों (आँख कान नाक गला इत्यादि) के टेम्प्रेचर को नियमित रखता है । वह इसलिए कि इसमें आर्द्रता के साथ साथ ऑक्सिजन का निरंतर प्रभाव बना रहता है । उस प्राण के ही कारण इंद्रिय हमेशा सजग रहती हैं । इस ख़ाली जगह में पानी व कफ़ की मात्रा बहुत अधिक नहीं बढ़नी चाहिए । यदि बहुत अधिक बढ़ती है तब ऑक्सिजन की अब्ज़ॉर्प्शन कम हो जाती है । इसीलिए ऐसे स्वभाव वाले व्यक्तियों में सिर्फ़ साइनस के क्षेत्र से सम्बंधित समस्याएँ ही नहीं होती बल्कि गले, पाचन और फेफड़े से सम्बंधित भी समस्याएँ अधिक होने लगती हैं ।
साइनस के ख़ाली स्थान में आवश्यकता से अधिक जल की मात्रा बढ़ जाने पर सभी इंद्रियाँ स्लो डाउन होने लगती हैं । जैसे नासिका के अंदर ऑक्सिजन के आने जाने में बाधाएँ आने लगती हैं । नासिका से लेकर गले तक के अंदर सभी सूक्ष्म तंत्रिकाओं में सजगता कम होने लगती है जिससे सूंघने की शक्ति ख़त्म सी हो जाती है और साँसों के द्वारा जो आत्म संतुष्टि होती है उसमें अभाव होने लगता है । कपालभाती प्राणायाम का अभ्यास इसी क्षेत्र में ऊष्मा का प्रभाव बढ़ाता है जिससे ये सभी समस्याएँ नहीं हो पाती हैं ।
साइनस के ख़ाली स्थान में आवश्यकता से अधिक जल की मात्रा बढ़ जाने पर नाक के नज़दीक आँख पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है । आँखों में जल का प्रभाव बढ़ने लगता है । आँखों में जल का प्रभाव आवश्यकता से अधिक बढ़ने पर आँखो के माध्यम से भावनात्मक अब्ज़ॉर्प्शन बढ़ जाता है । जिस भी व्यक्ति के आँखों में अधिक जल होता है उसकी आँखे किसी भी दृश्य से भाव को अधिक ग्रहण करनी प्रारम्भ कर देतीं हैं । ऐसे लोगों में थोड़ा सा दुःख आने मात्र से आँखें पानी की मात्रा तुरंत छोड़ना शुरू कर देतीं हैं । इसीलिए इस प्रकार लोग रोते हुए पाए जाते हैं । जब कपालभाती प्राणायाम का अभ्यास किसी योग्य निर्देशन में किया जाता है तब इन सभी समस्याओं से बचा जा सकता है ।
साइनस के क्षेत्र में जल की अधिकता से कान भी प्रभावित होने लगता है । ज़्यादातर लोगों के कान बहने लगते हैं और उससे सुनाई कम देने लगता है । कान के पर्दे बंद होने और फटने शुरू हो जाते हैं ।
जहां तक गले की बात है, उसमें भी दुष्प्रभाव बहुत अधिक देखने को मिलते । हमेशा गला रुँधा रुँधा सा रहता है , कफ़ व बलगम का प्रभाव बना रहता है । गले में निरंतर कफ़ गिरता रहता है । इस समस्या का भी समाधान कपालभाती प्राणायाम से सम्भव है क्योंकि इसके अभ्यास में गले से लेकर नासिका तक का अभ्यास होता है ।
मेरे स्वयं के अनुभव में केवल बाहरी समस्याओं से ही व्यक्ति नहीं घिरता बल्कि इससे भावनात्मक समस्याएँ भी बढ़ने लगती हैं । यहाँ तक कि ऊर्जा की कमी इतनी अधिक होने लगती है कि व्यक्ति के बहुत अधिक डिप्रेशन में जाने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं । वह हमेशा भयग्रस्त रहता है । इसका प्रमुख कारण है कि लगभग सभी इंद्रियों में गर्मी व ऊष्मा का इतना अधिक अभाव हो जाता है कि सभी इंद्रियाँ शिथिल सी हो जाती हैं और मन हमेशा दबा दबा सा रहता है । कपालभाती के अभ्यास से इस क्षेत्र की समस्या को भी मैंने बेहतर करते हुए देखा है ।
इसी प्रकार स्वभाव के लोगों में कैन्सर जैसे गम्भीर रोग भी देखने को अधिक मिलते हैं और साथ साथ इस प्रकार के लोगों में रोग की शुरुआत में पता कर पाना मुश्किल होता है । क्योंकि उनकी इंद्रियाँ और शरीर में इतनी शिथिलता रहती है कि वे मस्तिष्क को अपने अंदर पनपने वाले रोगों को बता नहीं पाते हैं । ऐसे लोगों के रोगों को बताने वाले सेन्सर लगभग काम करना बंद कर देते हैं , इसीलिए उन्हें अपने अंदर पनपने वाले गम्भीर रोगों जा आभाष नहीं हो पाता है । साथ साथ इस प्रकार के लोगों में आंतरिक प्रतिरोधक शक्ति (ऊष्मा) भी बहुत कम रह जाती है जिसे वह पनपने वाले रोगों को समाप्त कर सके ।
कपालभाती प्राणायाम के अभ्यास से इन सभी उपर्युक्त समस्याओं का निराकरण सम्भव है क्योंकि यह अभ्यास उसी क्षेत्र में ऊष्मा को पैदा करके सभी इंद्रियों में वापस ऊर्जा ला देता है । सभी इंद्रियाँ में ऊष्मा के आ जाने पर वे पुनः सक्रिय होकर मस्तिष्क के अगले हिस्से को ही नहीं बल्कि फेफड़ों और आँतों में भी होने वाली समस्याओं का समाधान कर देता है ।
ध्यान देने योग्य बात :
किसी भी गहन अभ्यास के पूर्व किसी योग्य अनुभवी गुरु का निर्देशन लेना उपयुक्तत होता है ।
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