देखो, किताबों को पढ़ना बुरा नहीं है, किताबें अवश्य पढ़ें। कोई भी किताब पढ़ सकते हैं – रामायण, महाभारत, या और भी कई आध्यात्मिक पुस्तकें।
ध्यान दो, यदि मैं उदाहरण दूं तो रामायण हम सभी पढ़ते हैं। हर घर में लगभग रामायण रखी होती है और पढ़ी जाती है। लेकिन हर घर में ज़मीन और जायदाद की लड़ाइयाँ भी देखने को मिलती हैं । ज्यादातर हम किताबों को केवल मस्तिष्क के विश्राम के लिए पढ़ते हैं, क्योंकि सामान्यतः हम वीडियो देखते हैं, जिससे हमारी आँखों का ध्यान वीडियो पर रहता है और हमारा मस्तिष्क थकता है। चूँकि चलचित्र चल रहा होता है इसलिए आँखों में अधिक थकान होती है किंतु पुस्तक स्थिर है इसलिए आँखों में थकान की संभावना बहुत न के बराबर ही होती है ।
जब हम कुछ पढ़ते हैं, तो हमारा मस्तिष्क ज्यादा संतुष्ट होता है। पढ़ने से कहीं अधिक संतुष्टि लिखने में होती है। वह इसलिए क्योंकि लिखने में मन और आँखों की गति पढ़ने से भी धीमे हो जाती है । देखने की गति बहुत तीव्र होती है किंतु पढ़ने की बहुत सीमित और धीरे होती है किंतु उससे भी धीरे गति लिखने की होती है । इसीलिए इन्द्रियों , मन और मस्तिष्क को थकान बहुत कम मात्रा में होती है ।
किंतु ध्यान दें उससे भी अधिक मनोसंतोष एव आत्म संतोष तब होता है जब लिखने की गति से भी धीमी गति हो जाये । जैसे जो लिखा जा रहा हो उस पर प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया जाये । क्योंकि प्रयोग करते समय मन और इन्द्रियों में विचारों को संग्रह करने के बजाय उस पर व्यावहारिक प्रयोग करने की शुरू हो जाती है ।
जैसे एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है । श्री राम जिन्हे नैतिकता की मूर्ति समझते हैं , के बारे में पढ़कर कितना शांत हो जाते हैं । यदि उसी तरह की नैतिकता को व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन के अंदर प्रयोग में लाता है तब उसे कितना व्यावहारिक संतोष मिलेगा । पढ़ने से जो शांति प्राप्त हुई वह मात्र क्षणिक और अस्थायी शांति थी किंतु जो स्वयं के व्यवहार में लायी जाती है वह व्यावहारिक अनुभव होता है । वह एक व्यावहारिक स्मृति है । वह समय आने पर स्वतः ही प्रकट हो जाएगी । किंतु जो शाब्दिक स्मृति है वह समय पर कभी भी प्रकट नहीं होती है ।
इन सब बातों का अर्थ यह नहीं कि किताबों को पढ़ा न जाये । यहाँ पर सार बस इतना है कि उन सभी शब्दों को व्यवहार में उतारने का प्रयत्न किया जाये । ताकि की व्यवहार में जीने के बजे सिर्फ़ किताबों को पढ़ने की सिर्फ़ लत ही न लग जाये ।
ध्यान दो, जब कोई व्यक्ति कुछ पढ़ता है, तो उसका मन अल्पकाल के लिए शांत हो जाता है। उसी क्षणिक समय में मन जब मन शांत होता है, तब वह निर्णय लेने की क्षमता पाता है। हम किताबें सिर्फ किताब के लिए नहीं पढ़ते, बल्कि अपने मन को शांत करने और सही निर्णय लेने के लिए पढ़ते हैं।
लेकिन समस्या यह है कि मन को पढ़ने की लत तो लग जाती है किंतु उसके अंदर व्यवहार में प्रयोग करने की क्षमता विकसित नहीं होती है । वह इसीलिए क्योंकि वह क्षणिक शांति ही से संतुष्ट होना चाहता है । उससे आगे बढ़ने के लिए कुछ चाहता ही नहीं ।
प्रतिदिन रामायण पढ़ते हैं , राम राम लिखते भी हैं । उसमें लिखा हुआ केवल एक वाक्य को व्यवहार में लाने के लिए वर्षों लग जाते हैं । विचार करो कि प्रतिदिन कैसे पढ़ सकते हो । यदि पढ़ोगे भी तो मात्र कुछ ही वाक्य । उसके बाद उसको व्यवहार में लाने का तो मन करेगा । व्यवहार जैसे जैसे अधिक बढ़ता जाता है पढ़ना स्वतः ही बंद हो जाता है । वह इसलिए कि अब शबों को पढ़ने के बजाय वर्तमान में हो रही घटनाओं को पढ़ना पद रहा है । चूँकि घटनाये इतनी तीव्र गति से तो भागती नहीं , जैसे की किताबों को पढ़ते हैं इसीलिए मन को बहुत गहराई में समझने के लिए मजबूर होना पड़ता है ।
ध्यान दो किसी एक किताब को कुछ दिनों में ही पढ़कर समाप्त कर सकते हो किंतु वर्तमान जीवन में घट रही घटनाओं को तुम समाप्त नहीं कर सकते हो , उसको उसी उसकी गति में ही आपको समझना पड़ेगा । आपको समझने के लिए बहुत समय मिल जाता है । कहते हैं कि दुख ऐसा धीरे धीरे चलता है कि उसका समय कटता ही नहीं , वह इसलिए कि दुख की गति इतनी अधिक धीमी होती है कि उसे समझने का बहुत अधिक समय हमें मिल जाता है । इसीलिए दुख की स्मृति मस्तिष्क में अधिक रहती है बनिस्बत सुख की क्योंकि ऐसा लगता है सुख का समय बहुत तीव्र गति से निकल गया ।
अंततः व्यवहार ही आपकी असली पुस्तक है ।
किताबें पढ़ना कहाँ तक उचित है !
देखो, किताबों को पढ़ना बुरा नहीं है, किताबें अवश्य पढ़ें। कोई भी किताब पढ़ सकते हैं – रामायण, महाभारत, या और भी कई आध्यात्मिक पुस्तकें।
ध्यान दो, यदि मैं उदाहरण दूं तो रामायण हम सभी पढ़ते हैं। हर घर में लगभग रामायण रखी होती है और पढ़ी जाती है। लेकिन हर घर में ज़मीन और जायदाद की लड़ाइयाँ भी देखने को मिलती हैं । ज्यादातर हम किताबों को केवल मस्तिष्क के विश्राम के लिए पढ़ते हैं, क्योंकि सामान्यतः हम वीडियो देखते हैं, जिससे हमारी आँखों का ध्यान वीडियो पर रहता है और हमारा मस्तिष्क थकता है। चूँकि चलचित्र चल रहा होता है इसलिए आँखों में अधिक थकान होती है किंतु पुस्तक स्थिर है इसलिए आँखों में थकान की संभावना बहुत न के बराबर ही होती है ।
जब हम कुछ पढ़ते हैं, तो हमारा मस्तिष्क ज्यादा संतुष्ट होता है। पढ़ने से कहीं अधिक संतुष्टि लिखने में होती है। वह इसलिए क्योंकि लिखने में मन और आँखों की गति पढ़ने से भी धीमे हो जाती है । देखने की गति बहुत तीव्र होती है किंतु पढ़ने की बहुत सीमित और धीरे होती है किंतु उससे भी धीरे गति लिखने की होती है । इसीलिए इन्द्रियों , मन और मस्तिष्क को थकान बहुत कम मात्रा में होती है ।
किंतु ध्यान दें उससे भी अधिक मनोसंतोष एव आत्म संतोष तब होता है जब लिखने की गति से भी धीमी गति हो जाये । जैसे जो लिखा जा रहा हो उस पर प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया जाये । क्योंकि प्रयोग करते समय मन और इन्द्रियों में विचारों को संग्रह करने के बजाय उस पर व्यावहारिक प्रयोग करने की शुरू हो जाती है ।
जैसे एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है । श्री राम जिन्हे नैतिकता की मूर्ति समझते हैं , के बारे में पढ़कर कितना शांत हो जाते हैं । यदि उसी तरह की नैतिकता को व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन के अंदर प्रयोग में लाता है तब उसे कितना व्यावहारिक संतोष मिलेगा । पढ़ने से जो शांति प्राप्त हुई वह मात्र क्षणिक और अस्थायी शांति थी किंतु जो स्वयं के व्यवहार में लायी जाती है वह व्यावहारिक अनुभव होता है । वह एक व्यावहारिक स्मृति है । वह समय आने पर स्वतः ही प्रकट हो जाएगी । किंतु जो शाब्दिक स्मृति है वह समय पर कभी भी प्रकट नहीं होती है ।
इन सब बातों का अर्थ यह नहीं कि किताबों को पढ़ा न जाये । यहाँ पर सार बस इतना है कि उन सभी शब्दों को व्यवहार में उतारने का प्रयत्न किया जाये । ताकि की व्यवहार में जीने के बजे सिर्फ़ किताबों को पढ़ने की सिर्फ़ लत ही न लग जाये ।
ध्यान दो, जब कोई व्यक्ति कुछ पढ़ता है, तो उसका मन अल्पकाल के लिए शांत हो जाता है। उसी क्षणिक समय में मन जब मन शांत होता है, तब वह निर्णय लेने की क्षमता पाता है। हम किताबें सिर्फ किताब के लिए नहीं पढ़ते, बल्कि अपने मन को शांत करने और सही निर्णय लेने के लिए पढ़ते हैं।
लेकिन समस्या यह है कि मन को पढ़ने की लत तो लग जाती है किंतु उसके अंदर व्यवहार में प्रयोग करने की क्षमता विकसित नहीं होती है । वह इसीलिए क्योंकि वह क्षणिक शांति ही से संतुष्ट होना चाहता है । उससे आगे बढ़ने के लिए कुछ चाहता ही नहीं ।
प्रतिदिन रामायण पढ़ते हैं , राम राम लिखते भी हैं । उसमें लिखा हुआ केवल एक वाक्य को व्यवहार में लाने के लिए वर्षों लग जाते हैं । विचार करो कि प्रतिदिन कैसे पढ़ सकते हो । यदि पढ़ोगे भी तो मात्र कुछ ही वाक्य । उसके बाद उसको व्यवहार में लाने का तो मन करेगा । व्यवहार जैसे जैसे अधिक बढ़ता जाता है पढ़ना स्वतः ही बंद हो जाता है । वह इसलिए कि अब शबों को पढ़ने के बजाय वर्तमान में हो रही घटनाओं को पढ़ना पद रहा है । चूँकि घटनाये इतनी तीव्र गति से तो भागती नहीं , जैसे की किताबों को पढ़ते हैं इसीलिए मन को बहुत गहराई में समझने के लिए मजबूर होना पड़ता है ।
ध्यान दो किसी एक किताब को कुछ दिनों में ही पढ़कर समाप्त कर सकते हो किंतु वर्तमान जीवन में घट रही घटनाओं को तुम समाप्त नहीं कर सकते हो , उसको उसी उसकी गति में ही आपको समझना पड़ेगा । आपको समझने के लिए बहुत समय मिल जाता है । कहते हैं कि दुख ऐसा धीरे धीरे चलता है कि उसका समय कटता ही नहीं , वह इसलिए कि दुख की गति इतनी अधिक धीमी होती है कि उसे समझने का बहुत अधिक समय हमें मिल जाता है । इसीलिए दुख की स्मृति मस्तिष्क में अधिक रहती है बनिस्बत सुख की क्योंकि ऐसा लगता है सुख का समय बहुत तीव्र गति से निकल गया ।
अंततः व्यवहार ही आपकी असली पुस्तक है ।
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