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क्या स्थिरता वास्तव में संभव है?

4 days ago By Yogi Anoop

स्थिरता का रहस्य: क्या वास्तव में कुछ भी स्थिर है?

छात्र: योगी अनूप जी, हम किसी वस्तु को स्थिर देखते हैं, लेकिन विज्ञान कहता है कि कोई भी वस्तु वास्तव में स्थिर नहीं होती। इसका क्या अर्थ है? और ध्यान में स्थिरता प्राप्त करने का क्या तात्पर्य है?

योगी अनूप: विज्ञान से हजारों वर्ष पूर्व ही भारतीय दार्शनिकों ने यह बताया था कि दृश्य जगत का मूल स्वभाव चलायमान ही है। भौतिक दृष्टि से देखें तो इस संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है। जो हमें अचल और अपरिवर्तनीय प्रतीत होता है, वह भी अणुओं और परमाणुओं से बना हुआ है, जो निरंतर गति में हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है, हमारा शरीर भी हर क्षण बदल रहा है।

यह न केवल भौतिक जगत की सच्चाई है, बल्कि हमारे मानसिक और आध्यात्मिक अस्तित्व की भी यही वास्तविकता है। जैसे कोई भी वस्तु स्थिर नहीं होती, वैसे ही हमारा मन, मस्तिष्क, इंद्रियाँ और देह भी कभी स्थिर नहीं रहते। विचार निरंतर आते-जाते रहते हैं, भावनाएँ बदलती रहती हैं, और यह बदलाव हर क्षण होता रहता है।

वाह्य रूप से कोई व्यक्ति शांत दिख सकता है, लेकिन उसके भीतर लगातार विचारों, संवेदनाओं और ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है। इसीलिए यह कहना कि केवल दृश्य स्थिर है, एक भ्रम मात्र है।

तो फिर स्थिर क्या है?

यदि सब कुछ अस्थिर है, तो स्थिर क्या है? क्या कोई तत्व ऐसा है जो वास्तव में स्थिर है?

इसका स्पष्ट उत्तर यह है कि जो इन सभी अस्थिर तत्वों का अनुभव कर रहा है, वही पूर्ण रूप से स्थिर है। अस्थिरता का बोध जिसे हो रहा होता है, वही तो स्थिर होगा। अस्थिरता का अनुभव करने वाला तत्व कौन हो सकता है? वह दृष्टा ही हो सकता है—अर्थात् “मैं”।

जब आप किसी मूर्ति, दीपक की लौ या पर्वत को स्थिर देखते हैं, तो यह देखने वाला कौन है? यदि आपको किसी वस्तु की अस्थिरता का बोध हो रहा है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि देखने वाला स्वयं स्थिर है।

यही वह अद्वैत सत्य है, जिसे योग और ध्यान हमें समझाते हैं—जो देख रहा है, वह अचल है। चेतना स्वयं में स्थिर है। यह संसार क्रियाशील है, लेकिन उसे देखने वाला साक्षी अचल है। यदि देखने वाला स्वयं अस्थिर होता, तो वह किसी और चीज़ की अस्थिरता को देख ही नहीं सकता था।

विचारों और मन की अस्थिरता का रहस्य

मन में विचारों की धारा अनवरत चलती रहती है—कभी खुशी, कभी दुख, कभी शांति, कभी अशांति। यह परिवर्तन कभी नहीं रुकता। जैसे नदी की धारा निरंतर बहती रहती है, वैसे ही मन में विचारों का प्रवाह चलता रहता है।

लेकिन जब यह “मैं”—जो वास्तव में देखने वाला है—अपने आपको भी इस प्रवाह का हिस्सा मानने लगता है, तब भ्रम उत्पन्न होता है। यही अज्ञानता की जड़ है। जब मन अशांत होता है और हम स्वयं को उस अशांति से जोड़ लेते हैं, तब तनाव, चिंता और मानसिक अस्थिरता जन्म लेती है।

क्या तनाव का मूल कारण यही है?

हमारा शरीर पाँच तत्वों से बना हुआ है, और वह स्वाभाविक रूप से चलायमान है। मन भी चलायमान होगा, क्योंकि वह इंद्रियों के माध्यम से बाहरी जगत से संपर्क करता है, और बाहरी जगत स्वयं में परिवर्तनशील है। जब मन बाहरी जगत के संपर्क में आता है, तो उसे जो भी अनुभव प्राप्त होता है, वह भी अस्थिर ही होता है।

यद्यपि, इस संपर्क का उद्देश्य स्थिरता प्राप्त करना होता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति धन कमाने के लिए परिश्रम करता है (जो कि एक क्रिया है, यानी गति है) ताकि भविष्य में उसे स्थिरता और शांति प्राप्त हो सके।

क्या स्थिरता संभव है?

यह सिद्ध है कि मनुष्यों द्वारा की गई हर क्रिया का अंतिम उद्देश्य स्थिरता का बोध प्राप्त करना ही होता है। लेकिन विचारों की आपाधापी में फँसने के कारण स्थिरता प्राप्त नहीं हो पाती।

ध्यान दें कि अस्थिर परिस्थितियों में अस्थिर होना बहुत सरल है, लेकिन अस्थिर तत्वों के बीच रहते हुए भी स्थिरता का अनुभव करना ही सबसे कठिन कार्य है। और यही दर्शन का लक्ष्य है। यही योग और ध्यान का अंतिम उद्देश्य है।

अतः स्थिरता बाहरी जगत में नहीं, बल्कि आंतरिक चेतना में खोजनी होगी। वही साक्षी, वही दृष्टा, वही “मैं”—वास्तव में स्थिर है।

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