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क़ब्ज़: प्राणायाम से समाधान

1 year ago By Yogi Anoop

क़ब्ज़: प्राणायाम से समाधान 

जैसा कि पूर्व में भी हमेशा कहता आया हूँ कि अधिक तनाव से आँतों में दुष्प्रभाव और इसके बिल्कुल विपरीत पेट में निरंतर खिंचाव से मस्तिष्क में तनाव बढ़ता है और इसके परिणामस्वरूप आँतों में समस्या आनी प्रारम्भ होने लगती है । 

यहाँ ध्यान देने योग्य प्रमुख बातें हैं -

आँतों और मस्तिष्क में जल तत्व, चिकनाई और प्राण तत्व , यदि ये तीनो का समन्वय बहुत अच्छा है तब आँतों में किसी भी प्रकार की क़ब्ज़ से सम्बंधित समस्याओं के आने की सम्भावनाएँ बहुत कम हो जाती हैं व क़ब्जियत जिन्हें पहले है उनकी समस्याओं का निराकरण आसानी से हो जाता है । 

ज़्यादातर लोगों के मन में ऐसी अवधारणाएँ होती हैं कि क़ब्ज़ को ठीक करने के लिए पेट के हिस्से में हथौड़े से मारने जैसा अभ्यास करो तो वह ठीक हो जाएगा । 

योग में कुछ लोगों को देखा होगा कि पैर का गोला बनाना, उठक बैठक करना, दौड़ना भगना और ऐसे हाइपर प्राणायाम जैसे कपालभाती, अग्निसार इत्यादि क्रियाएँ ऐसे करवायीं जाती हैं जैसे वह फ़्री में मिल गयी हों । ऐसी सामान्य अवधारणा है कि क़ब्जियत को ठीक karna हो तो आँतों में गर्मी उत्पन्न कर दो । कुछ वैसे ही जैसे आयुर्वैदिक हर्ब से आँतों में गर्मी पैदा करके क़ब्ज़ को ठीक किया जाता है वैसे ही गर्मी पैदा करने वाली क्रियाओं का अभ्यास करवा कर आँतों में मल का निष्कासन करवाया जाता है । किंतु ध्यान दें इस प्रकार से मल का निष्कासन आँतों और मस्तिष्क के लिए बहुत लाभकारी नहाई है । इस साधन से लूस मोशन तो हो सकता है किंतु पूरा पाचन हो करके निष्कासन नहीं होगा । 


यदि आँतों को ठीक करना है तो मस्तिष्क को आराम और कमर के हिस्से के रीढ़ के हिस्से को ठीक करना होगा । मस्तिष्क में हो रहे तनाव का दुष्प्रभाव कमर के हिस्से पर पड़ता है जिससे आँतों में निष्क्रियता आ जाती है । कमर के कमजोर होने से मस्तिष्क आँतों को संदेश दे पाने में लगभग असमर्थ हो जाता है जिसके कारण क़ब्ज़ हो जाती है । 


   ऐसे में वही प्राणायाम करने उचित होते हैं जो कि मस्तिष्क में अधिक से अधिक शांति और स्थिरता लाए और साथ साथ कमर के हिस्से के रीढ़ में प्राण का संचार अधिक कर दे ।  किंतु आँतों में गर्मी भी न पैदा करे । 

यदि ध्यान पूर्वक देखो तो तो सभी चिकित्सा में आँतों को साफ़ करने के लिए गर्म दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है , यहाँ तक कि आयुर्वेद में भी ऐसी हर्ब का उपयोग किया जाता है जिससे आँतों के अंदर गर्मी बढ़ सके और सफ़ाई हो सके । यहाँ तक कि प्राणायाम विज्ञान में भी आँतों को साफ़ करने के लिए ऐसे प्राणायाम का अभ्यास करवाया जाता है जिसमें गर्मी हो जैसे कपालभाती व अग्निसार करिय इत्यादि । किंतु ध्यान दें मैं इस प्रकार के प्राणायामों के करने की सलाह सभी को नहीं देता हूँ । मैं उन प्राणायामों पर ज़ोर देता हूँ जो मस्तिष्क को आराम देता है , और साथ साथ पेट की मांसपेशियों और कमर में रक्त और प्राण का संचार बिना गर्मी पैदा किए अधिक कर देता  है । 

इसीलिए रात में सोने के पहले मस्तिष्क और आँतों को ढीला और शांत करने के लिए परमहामस पर ज़ोर देता हूँ , मैं चाहता हूँ कि मस्तिष्क रात में और सुबह उठते ही जितना वैचारिक रूप से शांत होता जाएगा उतना ही आँतों को अच्छी तरह से निर्देश देने लगेगा । 

चूँकि सुबह उठते ही मन मस्तिष्क स्वयं के बचाव में ही इतने उलझे हुए होते हैं कि आँतों को  संदेश नहीं दे पाते  । 


कुछ महत्वपूर्ण बातें ; 


1- रात में 8 बजे के बाद आँख जीभ और जबड़े का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए । 

रात को भोजन के बाद कोई भी स्क्रीन नहीं देखनी चाहिए ।  8 बजे रात के बाद यदि भोजन के लिए मुँह को बंद कर देना चाहिए , बात करने के लिए मुँह की जितनी आवश्यकता हो उतना ही उपयोग में लाना चाहिए । इसके बाद मुँह के साथ साथ आँखों की किसी भी स्क्रीन के सामने गड़ाना भी बंद व कम से कम कर देना चाहिए । 

सोने के पहले प्राणायाम अवश्य करना चाहिए । यह प्राणायाम ऐब्डॉमिनल ब्रीधिंग के रूप में ही होना चाहिए । इसमें दो स्तर के प्राणायाम होने चाहिए 


प्रथम ऐब्डॉमिनल ब्रीधिंग (पेट से किया गया प्राणायाम) जिसका ज़िक्र यहाँ पर करेंगे और दूसरा ऐब्डॉमिनल हाफ़ स्क्वीज़िंग । 


ऐब्डॉमिनल ब्रीथिंग 

किसी एक स्थान पर लेट जाएँ, पाँचों इंद्रियों को ढीला करते हुए माथे को पूर्ण रूप से ढीला और शांत करें । अंतरतम में जल्दीबाज़ी नहीं होनी चाहिए , जल्दीबाज़ी के होने से पेट के साथ गुदा द्वार में खिंचाव स्वतः ही हो जाता है ।  यदि समय की कमी हो तब न करें । 

अब स्वाँस को बहुत धीरे धीरे अनुभव करते हुए अंदर सीधा पेट में ले जाएँ , और पूरे पेट को इतना फुलाएँ कि किसी भी प्रकार का तनाव चेहरे पर न आए । स्वाँस को 2 से 3 सेकंड रोकें और उसके बाद स्वाँस को बिना कोई प्रयत्न के बाहर निकालें , साथ में इस बात का ध्यान रहे कि स्वाँस को बाहर निकलते समय पेट को पिचकाएँ नहीं । जिस अवस्था में पेट था उसी सामान्य अवस्था में कर लें । 

स्वाँस को अंदर लेते समय अनुभव के साथ प्रयत्न करें तथा स्वाँस को बाहर निकालते समय प्रयत्नविहीनता अर्थात् शिथिलता का अनुभव करें ।

ध्यान दें क़ब्जियत में रोगी स्वाभाविक रूप में शिथिलीकरण को लगभग भूल जाता है । 

इसीलिए स्वाँस को बाहर निकालते समय प्रयत्न नहीं करना और पेट को पिचकना नहीं है । 

इस क्रिया को कम से कम 11 से 21 मिनट प्रतिदिन किया जाना चाहिए किंतु किसी गुरु के संरक्षण में करने का प्रयत्न करें तो बहुत ही लाभकारी होगा । 

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