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जिसे चाहो वश में कर सकते हो

2 years ago By Yogi Anoop

जिसे चाहो वश में कर सकते हो । जिसे चाहो अपनी ओर आकर्षित कर सकते हो  ।

आख़िर अंतर्मन किसी को आकर्षित करने की ‘चाहना’ क्यों करता है ? इस आकर्षण के पीछे का मूल कारण क्या है ? 

एक सामान्य मन कहीं न कहीं अपनी इक्षाओं को सदा के लिए पूर्ण कर पाने में असमर्थ पाता है, उसे ऐसा भ्रम होता है कि इक्षित वस्तु के मिलने पर ही इक्षाएँ पूर्णतः शांत होंगी । बजाय कि उसकी गहराई में जाने के वह इक्षा की गयी वस्तु को प्राप्त करने के लिए अंधाधुंध प्रयत्न करने लगता है । 

स्वाभाविक है कि इक्षित वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयोग किए गए साधनों में मन ,इंद्रिय और शरीर में कितने झटके लगते हैं कि उसका अनुमान कर पाना बहुत कठिन होता है । इन  झंझावतों में व्यक्ति को दुःख इतना अधिक मिल चुका हुआ होता है कि वह स्वयं को असहाय समझने लगता है और परिणामस्वरूप वह किसी अभौतिक सत्ता के प्रति आस लगा बैठता है । उसे ऐसा लगता है वह अभौतिक शक्ति उसकी इक्षाओं को पूर्ण कर देगी । 


इसीलिए स्व (स्वयं) को आनंदित कराने के लिए उसका अंतर्मन एक ऐसा मार्ग ढूँढने का प्रयत्न करता है जो बिना दुःख दिए सिर्फ़ मन की एकाग्रता के द्वारा किसी वस्तु को वश में कर लेने शक्ति प्रदान कर देता है । 

वह उन विचारों और कल्पनाओं को जन्म देने लगता है जो उसके मन को नशेड़ी जैसा बना दे, जैसे कोई व्यक्ति किसी मादक द्रव्यों के नशे में पूर्ण संतुष्ट जैसा दिखता है कुछ वैसे ही आध्यात्मिक साधना में भी वह ऐसे साधनों पर विचार करने लगता है जो बिना कारण किए प्राप्त हो जाय । अर्थात् ‘जिसे चाहा वश में कर लिया’  जैसी भ्रामक जैसे साधना का मन में कल्पना करने लगता है ।  


चूँकि जीवन में स्वयं की इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर पाने का व्यक्ति  के अंतरतम में अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा क्षोभ रहता है और उसी ग्लानि को पूर्ण करने के लिए उसका अंतर्मन किसी अन्य दूसरे को वश में करने का एक स्वाँग रचता है ।


इसीलिए इस प्रकार के नशेड़ी विचारों व कल्पनाओं का जाल बुनता है जिससे उसकी चाहत सफल हो जाए, जिससे उसकी इक्षाएँ पूर्ण हो जाएँ किंतु ध्यान रहे किसी भी नशे के उतरने पर मन अवसाद व डिप्रेशन की तरफ़ जाने लगता है । 


जैसे एक अनुभव से इसे समझाया जा सकता है-

प्रारम्भिक काल में ध्यान करते समय मैं कुछ विशेष गुरुओं, जो कि इस संसार में शारीरिक रूप से अब नहीं हैं, के चित्र के भ्रूमध्य पर पर कुछ घंटों तक ध्यान का अभ्यास किया करता था । ध्यान का मुख्य ध्येय था कि उन्हें अपने पास बुला लेना । उनसे शक्तियों को प्राप्त करना । उनसे शांति को प्राप्त करना इत्यादि । 

ध्यान के शुरुआत के कुछ मिनटों के बाद बहुत उत्तेजना आ ज़ाया करती थी, ऐसा आभाष होता कि बस मैंने उनसे जुड़ाव स्थापित कर लिया । इसी आभाष को घंटों-घंटों तक बनाए रखने का प्रयास करता रहता । किंतु कुछ वर्षों के बाद सिर में लगातार भारीपन, आँखों में निरंतर तनाव और जलन तथा साथ reflux के संकेत दिखने लगे । 

सत्य यह था कि मन में जितनी उत्तेजना उन गुरुओं से जुड़ने की बढ़ती थी उतनी ही शरीर के अंदर, पेट में , साँसों में, आँतों में और सिर के अंदर खिंचाव प्रारम्भ हो जाता था । यह खिंचाव घंटों दिनों और वर्षों तक बना रहा । 

यद्यपि मन की एकाग्रता उस चित्र पर होने के कारण स्वयं के शरीर में होती घटनाओं का अनुभव न हो पाता ।  


सम्भवतः यही कारण रहा कि उस साधना में क्षणिक उत्तेजनाओं से इंद्रियां और शरीर बहुत थकने लगती थीं और कुछ ही महीनों व वर्षों में उन समस्याओं ने गम्भीर रूप धारण कर लिया । 

ध्यान दें कभी कभी साधना में साधक बिना समझे अज्ञानतावश बालकपन में इन  आकर्षण के जाल में फँस कर साधना करने लगता है, यद्यपि इसके पीछे भी उसका आत्म संतोष ही छिपा होता है, कुछ ही वर्षों में उसके मस्तिष्क का एक पैटर्न बन जाता है जो उसके मानसिक और शारीरिक रोगों का कारण बन बैठता है । वह चाह कर भी मस्तिष्क के उस पैटर्न को समाप्त नहीं कर पाता है । वह जानता है इससे दुःख व कष्ट हो रहा है, किंतु उसके मस्तिष्क में आदत इतनी गहरी हो चुकी है कि उसे ख़त्म करना आसान नहीं होता है ।  

साधक इस स्वनिर्मित मकड़ जाल से स्वयं को बाहर निकाल सकता है , यह भ्रम कि किसी को वश में कर लेंगे त्यागने का प्रयत्न करें , 

जिसे वश में कर सकते हैं वह स्वयं का मन इंद्रियाँ और शरीर ही है, ध्यान उस पर दें बजाय कि अन्य के । 


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