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जीवन: स्थिरता का अभ्यास

2 months ago By Yogi Anoop

जीवन के गहरे रहस्य और खोज 

कछुए और खरगोश की दौड़ की प्रसिद्ध कहानी में हम देखते हैं कि अंततः धैर्यवान कछुआ जीत जाता है, जबकि जल्दीबाजी के स्वभाव वाला खरगोश हार जाता है। इसलिए कि वह यात्रा के बींच में ही थक कर सो जाता है । इस कहानी में यह दिखाने का प्रयास है कि जीवन की यात्रा में में जल्दीबाजी के स्वभाव वाला पराजित होता है और साथ साथ इसी के विपरीत धैर्य और स्थिरता के साथ की गई यात्रा सुखदायी और स्थायित्व देती है । यहाँ पर कछुए की जीत का कारण उसका धैर्य और स्थिरता है, जबकि खरगोश अपनी जल्दबाज़ी और अधीरता के कारण हार जाता है।

अब, कल्पना कीजिए कि इस कहानी में यदि खरगोश को विजयी घोषित कर दिया जाए तो क्या परिणाम होगा? क्या इस जीत की अनुभूति वह कर पाएगा ? क्या जीतने के बाद उसके स्वभाव में व उसके जीवन में कोई परिवर्तन होगा ? 

मेरे अनुभव में, नहीं । विजयी होने के बावजूद उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होगा । यहाँ तक कि वह उस जीत को पचा भी नहीं पाएगा । वह पूर्व स्वभाव अनुसार पुनः भागने लगेगा । क्योंकि उसने यात्रा में जो सीखना चाहिए था वह सीखा ही नहीं । उसके स्वभाव में चंचलता थी , अस्थिरता थी , चपलता थी , उसने तो उसे और बढ़ा दिया । जब की उसे उस चंचलता को कम करना चाहिए था ।   उसको तो प्रतियोगिता में उचित अवसर मिला था कि वह यात्रा के दौरान कितना सीख लेता । उसने उस प्रतियोगिता में स्थिरता नहीं सीखी , स्वभाव में स्थिरता सीखा ही नहीं । वह तो भागना सीखा जो उसके स्वभाव में तो पहले ही था । उसने अपने मन और देह को और दौड़ाना सिखाया । अंततः किसी तरह से प्रतियोगिता जीत भी लेता है तो वह शांति और सुखी नहीं रह सकता है । वह इसलिए क्योंकि जीत के लिए इतना भागना सीखा कि देह और मन पर ध्यान ही नहीं दिया और वह रोगी हो गया ।  जब गंतव्य स्थल पर पहुँचेगा तो वहाँ स्वयं को रोगों से भरा हुआ पाएगा । यहाँ तक कि थकान और रोगों के कारण से उसे नींद भी नहीं आएगी । 

यात्रा के समय यदि अपनी इन्द्रियों को अपनी देह को और मन को सजग रूप से चलने का अभ्यास करवाता  , धैर्य का अभ्यास करवाता तो हर एक पग में वह शांति और स्थिरता का अनुभव करता । जीवन दौड़ है ही नहीं वह तो एक यात्रा है । जल्दीबाजी है ही नहीं ।  इसीलिए यह कहानी जीवन की यात्रा की ओर इंगित करती है , जीवन की यात्रा को पूर्ण करने के लिए दौड़ नहीं चाहिए होता है । यह यात्रा है । यात्रा हमेशा चलकर ही की जाती है ।  

कछुए ने अपनी यात्रा में हर पल स्थिरता और शांति का अनुभव किया। उसने धीमी गति से, अनुभव करते हुए अपनी यात्रा तय की। उसकी यात्रा एक अभ्यास थी, ध्यान का एक प्रतीक थी। जब वह गंतव्य पर पहुँचेगा, तो शांति और स्थिरता का गहरा अनुभव करेगा। उसे अपनी गति को रोकने में कोई कठिनाई नहीं होगी, जबकि खरगोश अपनी गति नहीं रोक सकेगा क्योंकि उसने अपनी यात्रा में नियंत्रण का अभ्यास ही नहीं किया था। खरगोश के लिए गंतव्य पर पहुँचने का अर्थ केवल शारीरिक और मानसिक थकान का निवारण होगा, जबकि कछुआ तो थका ही नहीं। उसने तो हर पग में शांति और स्थिरता का अनुभव किया । उसकी यात्रा में उसे स्थिरता का अनुभव मिला, जो गंतव्य पर पहुँचने पर और गहरा होगा।

मेरे अनुभव में दैनिक क्रियाओं में भी जल्दीबाजी नहीं होनी चाहिए । आराम आराम से कार्य करो । अनुभव करते हुए करो । आराम आराम से धीरे धीरे भोजन करो , लिखो भो तो धीरे धीरे लिखो । बोलो भी तो आराम आराम से बोलो । टहलो भी तो आराम आराम से टहलो । मेरे अनुभव इस सिद्धांत के माध्यम से कितने घंटो कार्य करो , थकान नहीं हो सकती । वह इसलिए कि देह के सभी अंग अपने स्वभाव के अनुरूप ही कार्य करेंगे । वह कम से कम मात्र में थकेंगे । वह इसलिए क्योंकि मन के द्वारा देह में बहुत जल्दी बाजी में प्रतिक्रिया नहीं की जा रही है । अंगों में अनावश्यक उत्तेजना नहीं हो रही होती है । और परिणामस्वरूप वे सभी अंग स्वयं में ऊर्जा को संचालित करने में कामयाब हो जाते हैं । इसके पीछे का मूल कारण है कि इस देह के सभी अंगों पर , मस्तिष्क पर मन का हस्तक्षेप कम से कम हो रहा होता है । इस अवस्था में देह के अंगों को अपनी ऊर्जा को पैदा करने का अवसर मिल जाता है । बिल्कुल वैसे ही जैसे गहन निद्रा में जब मन का देह पर हस्तक्षेप पूर्ण रूप से न होने पर मस्तिष्क पूरी तरह से अपनी ऊर्जा का संचयन कर लेता है । 

इसी को मैं जीवन में सबसे अधिक विजय मानता हूँ । जब जीवन में वाह्य सफलता प्राप्त करने के लिए भी बहुत जल्दीबाज़ी होती हैं तो शरीर जो कि एक साधन है ,उस अप्रत्यक्ष रूप में अत्याचार कर रहे होते हैं । इसीलिए जीवन में ऐसे व्यक्तित्व में रोगों की संख्या सर्वाधिक देखने को मिलती है । उनकी उम्र लंबी नहीं हो सकती है । इसी के विपरीत जो वाह्य सफलता प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं किंतु उसे एक दौड़ के रूप में न करके यात्रा के रूप में करते हैं तो वह आध्यात्म के शिखर पर पहुँचा देती है । वह चाहे व्यापारी ही क्यों न हो उसमें स्थिरत्व सबसे अधिक होगा । यदि कोई तथाकथित गुरु ही क्यों न हो यदि उसमें भागने के लक्षण है तो उसके वाह्य त्याग का कोई अर्थ नहीं है , वह स्थिरता के बोध को कभी भी अनुभव नहीं कर सकता है । 

मैंने जीवन को यात्रा की तरह जीने का अभ्यास किया । यही मेरी साधना है । 

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