“चलती हुई कार को देखने पर 99 फ़ीसदी यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि ड्राइविंग करने वाला लड़का विवाहित है या अविवाहित है ।”
अविवाहित व्यक्ति का व्यवहार बहुत अनुभवात्मक नहीं होता है, रक्त के संचार में गर्मी अधिक होती है , वह स्वयं को सर्वे सर्वा समझता है । उसे लक्ष्य को प्राप्त करने की बहुत जल्दी होती है । उसमें धैर्य की कमी, और रक्त में उबाल होने से नैतिक नियम और मर्यादाओं का आभाष नहीं रहता है । वह गाड़ी चलाता नहीं बल्कि नचाता है । उसे शक्ति की भाषा ही समझ में आती है किंतु ज्ञान की नहीं ।
किंतु विवाहित व्यक्ति बहुत सावधानी से चलता है, वह डरता हुआ गाड़ी चलाता है । उसके पास एक टीम है । पत्नी और बच्चे है । उसके पास ज़िम्मेदारी है । उसकी सावधानी में भय दिखता है कहीं न कहीं भय छिपा हुआ होता है । क्योंकि उसका मन जिम्मदारियों का भार उठाकर चलने को मजबूर है । वह चाहकर भी भाग नहीं पाता । वह उन ज़ंजीरों में बंधा बंधा सा महसूस करता है । इसलिए उसकी ड्राइविंग भयग्रस्त होती है ।
किंतु ध्यान दें, यह दोनों अवस्थाएँ ठीक नहीं हैं, एक में मन की अपरिपक्वता है और दूसरे में मन पर बोझ है । दोनों ही मस्तिष्क में थकान पैदा करते हैं । इन दोनों प्रक्रियाओं से उसकी शक्ति क्षीण होती है । यद्यपि ज्ञान से (न तो बचपन में और न ही विवाहित होने बाद ही) कोई मतलब नहीं है । उसे शक्ति से मतलब है । क्योंकि उसकी इंद्रिय मन और शरीर की शक्ति क्षीण हो रही है ।
यद्यपि एक उम्र के पड़ाव के बाद व्यक्ति को शक्ति (युवा) से ज्ञान (प्रौढ़ता व अनुभव) की तरफ़ स्थानांतरित हो जाना चाहिए किंतु ऐसा देखने को नहीं मिलता है । यही कारण है कि अधिक उम्र के लोग सठिया जाते हैं । उनमें सहनशक्ति का अभाव दिखता है ।
उनके व्यवहार में दोष दोष ही दोष दिखते हैं । ध्यान दें, एक सामान्य व्यक्ति या तो समस्याओं का सामना करने के बाद सीखता (जो वह जीवन भर नहीं करता है) और या तो ज्ञान से समस्याओं का सामना करता है । यदि दोनों में वह किसी भी साधन का चुनाव नहीं करता तो उसे मानसिक और शारीरिक रोग होने शुरू हो जाते हैं । उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है ।
एक विशेष उम्र के बाद व्यक्ति को शक्ति से कहीं अधिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है , क्योंकि ज्ञान से शक्ति को व्यवस्थित किया जा सकता है , किंतु शक्ति से ज्ञान को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । शक्ति तो प्रकृति के पास होती है , सूर्य के पास शक्ति ही शक्ति है किंतु ज्ञान नहीं है । किंतु उसे ज्ञान नहीं कि किसको कितना प्रकाश देना है ।
यदि किसी व्यक्ति के अंदर वास्तविक ज्ञान पैदा हो जाता तब उसे पता है कि कब क्या करना है । इसीलिए उसे कर्म में कुशल माना जाता है , निष्काम कर्म योगी कहा जाता है । एक कुशल ड्राइवर वही है जिसे गाड़ी चलाने में भय न दिखे और न ही हाइपर ऐक्टिविटी दिखे । वह ड्राइविंग में आनंदित हो । वह शांत चित्त से ड्राइविंग करता और यहाँ तक कि ड्राइविंग करते समय उसका ध्यान भी घटित हो जाता । उसका व्यवहार यंत्रिक भी नही होता जैसे कि एक ट्रक ड्राइवर का होता है । किंतु सामान्य लोगों में ऐसा अनुभव नहीं दिखता है , वे न तो संसार से सीखते हैं और न ही स्वयं से । जीवन भर दुःख और रोग से लड़ते हुए मरते हैं ।
इसीलिए ऐसे बहुसंख्यक लोगों को धर्म दिया जाता है । ऐसे लोगों के मन को थोड़ा आराम देने के लिए ऊपर वाले (ईश्वर) से आदेश पारित करवाया जाता है , भय दिया जाता है , लाभ का प्रलोभन दिया जाता है । धर्म के उपदेशकों को ऐसा लगता रहा होगा कि ऐसा करके सामान्य लोगों के मन की कुरीतियों को ठीक किया जा सकता है किंतु बजाय ठीक करने के वे और यंत्रिक हो जाते हैं । वे मानसिक दासता के और ग़ुलाम हो जाते हैं । वे रीति रिवाजों के अवधारणाओं में दब कर रह जाते हैं ।
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