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इंद्रियों के व्यवहार से रोग

1 year ago By Yogi Anoop

इंद्रियों के व्यवहार से शरीर में रोग होते हैं ।

          योग एक ऐसी पद्धति है जिसको मैंने आध्यात्मिक चिकित्सा की दृष्टि से देखा है । मैंने इसे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बीमारियों में प्रयोग करके हज़ारों बीमार व्यक्तियों को ठीक किया है । अपने अनुसंधानों के माध्यम से यह प्राप्त किया कि कहीं न कहीं अंतर्मन में ही समस्याओं का मूल छिपा हुआ है । यद्यपि आधुनिक विज्ञान बहुत सारे रोगों का मूल जड़ जेनेटिक ही मानता है । उनका मानना है कि रोगी का रोग उसके माता पिता व पूर्वजों के द्वारा प्राप्त होता है । 

यदि आध्यात्मिक दृष्टि से मैं बात करूँ तो रोगी का मूल रोग उसके स्वभाव से प्राप्त होता है । उसकी इंद्रियाँ मन और बुद्धि कहीं ना कहीं अविकसित हैं जिसके कारण रोग की उत्पत्ति होती है और उसके देह पर उसका दुष्प्रभाव पड़ता है । यदि उम्र के बढ़ने पर बुद्धि और इंद्रियाँ विकसित न हुई तो तो शरीर पर भयंकर दुष्प्रभाव देखने को मिलता है 


   इसीलिए मैं इन इंद्रियों को वाहन के रूप में देखता हूँ । यदि किसी भी कार्य को करने में इन वाहनों के साथ दुरुपयोग होता है तो इसका अभिप्राय है कि भविष्य में शारीरिक और मानसिक रोग का होना निश्चित है । यहाँ पर बात अच्छे और बुरे कर्म व अच्छे और बुरे विचारों की नहीं है । 

मूल सत्य यह है कि किसी भी कर्म को करते समय इंद्रियों का व्यवहार कैसा होना चाहिए । यदि वर्तमान में मन और इंद्रियाँ एक समुचित गति को नियंत्रित किए रहती हैं तो किसी भी प्रकार के दृश्यों व विषयों के अंदर आने पर उसमें कष्ट व चोट नहीं पहुँचेगा । इंद्रियों के माध्यम से किसी भी वाह्य विषयों के अंदर आने पर यदि उसमें चोट नहीं पहुँचती है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि शरीर पर उसका दुष्प्रभाव कम से कम होगा । तब इस अवस्था में इंद्रियाँ और शरीर रोगों से बच जायेगा । 


एक उदाहरण के रूप में इसे देखा जा सकता है । मुनि तरुण सागर जी बहुत बड़े  साधक थे । सदविचारों के ग्रंथ के रूप में थे किंतु सबसे बड़ी समस्या यह थी उनके प्रवचन के दौरान इंद्रियों में बहुत तेज़ी से उतार चढ़ाव आता था । यह गले, आखों में उतार चढ़ाव इतना तेज होता था कि शरीर पर दुष्प्रभाव हुआ । उनका शरीर क्षीण हुआ, और अंततः रोग ग्रस्त होकर शरीर त्याग हुआ । 

ध्यान दें यहाँ पर उनके ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा हुआ है । वह परम ज्ञानवान थे और शरीर के रोगों का दुष्प्रभाव उन पर नहीं पड़ा किंतु यहाँ उनके ज्ञान के वितरण के तरीक़े की बात हो रही है । 

उनके द्वारा दिये गये भाषण व सत्संग में इंद्रियों पर बेतहाशा तनाव दिया जाता था । जिसके कारण गले में आवश्यकता से कहीं अधिक दबाव और तनाव आता था । यही कारण है कि उनका शरीर रोगग्रस्त हुआ । 

ऐसे ही श्री राम कृष्ण परमहंस जी  और स्वामी विवेकानंद जी के साथ भी हुआ । 

एक बार पुनः मैं ध्यान दिलाना चाहूँगा कि इन सभी गुरुओं के ज्ञानात्मक पहुँच पर चर्चा नहीं हो रही है । उनके इंद्रियों की गति व व्यवहार पर चर्चा है । 


कहने का मूल अर्थ है कि इंद्रियों की गति बहुत अच्छी होनी चाहिये । मैंने ऐसे भी बहुत बुरे लोगों को भी देखा है जिनकी इंद्रियों की गति बहुत लगभग ठीक है और वे सभी लंबी उम्र जी रहे हैं ।  


अंततः यह सिद्ध है कि इन पाँचों इंद्रियों में बहुत उतार चढ़ाव मत आने दो ।  उन्हें ढीला और शांत रखने का प्रयास रखें । यही उनकी आदत बन जाना चाहिए जिससे उनकी स्मृति में किसी भी प्रकार की अति न हो ।

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