मस्तिष्क के अंदर वैचारिक प्रक्रिया के आवश्यकता से अधिक तेज चलने पर इंद्रियों के व्यवहार में बेढंगे परिवर्तन दिखते है । विशेष करके ऐसे विचार जो बहुत राजसिक एवं भावनात्मक होते हैं, उनकी स्वाद इंद्रियों में खाने की लत लग जाती है ।
यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो वैचारिक हलचल कुछ विशेष इंद्रियों में खिंचाव और तनाव बढ़ा देता है -
जैसे अत्यधिक सोचने विचार करने पर जबड़े अर्थात् मुँह में खिंचाव व तनाव बढ़ने लगता है , क्योंकि सोचने व विचार करने की प्रक्रिया में मुँह भले ही बंद रहे किंतु अंदर ही अंदर मुँह चलता रहता है जिससे जबड़ों में खिंचाव बढ़ने लगता है और साथ साथ थकान बढ़ने लगती है ।
जबड़ों के थकने पर दो प्रतिक्रियाएँ होने की प्रबल सम्भावनाएँ रहती हैं
बार बार भोजन करने की जिससे जबड़ों को थोड़ी देर के लिए शांति मिलती है।
जबड़ों में तनाव के कारण आवश्यकता से अधिक बोलने का मन करता है ।
यदि ऐसे प्रकृति के लोगों को बोलना कम करवा दिया जाए तो उन्हें डिप्रेशन होने लगता है ।
सत्य यह है तनाव से भरा हुआ जबड़ा, बोलने और बार बार भोजन करने से अपने तनाव को निकालने का प्रयास करता है । और जब इससे भी सहायता नहीं मिलती तो सोते समय, जबड़ों को आपस में भींचता है । इसका प्रमुख कारण है सोते समय अंदर वैचारिक क्रिया के चलने पर जबड़ों में तनाव आता है, उस समय सुषुप्त इंद्रियों के होने बोलने की क्रिया सम्भव नहीं होती है और न ही खाने की क्रिया हो सकती है, इसीलिए मस्तिष्क स्वयं के तनाव को कम करने के लिए रात में सोते समय दोनों जबड़ों को भींचना शुरू कर देता है ।
इस प्रकार के विचारकों को तला-भुना और मीठा खाने की मजबूरी होती हैं क्योंकि वह अंदर ही अंदर अपने जबड़ों को थका चुका हुआ है, जब वह दिन भर कुछ न कुछ खाता रहता है तब उसके जबड़े और जीभ शांत होते हैं और उससे मस्तिष्क को त्वरित ऊर्जा मिलती रहती है ।
कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिनमें वैचारिक क्षमता के बजाय काल्पनिक क्षमता की अधिक शक्ति होती है, इस प्रकार के लोगों में कल्पना की प्रधानता होने के कारण तनाव जबड़ों के बजाय आँखों पर अधिक आता है । क्योंकि कल्पना करते समय आँखों की पुतलियों में हलचल अधिक होती है । आँखो की ये हलचल दाहिने-बाएँ और नीचे की ओर सर्वाधिक होती हैं । आँखों की पुतलियों का ऊपर की ओर जाना बहुत कम होता है ।
ध्यान दें कल्पना करने की गति जितनी तीव्र होती है उतनी आँखों की पुतलियों में गति बढ़ती है । ऐसे में उनके मस्तिष्क का अगला भाग और पाचन की क्रिया समस्या ग्रस्त हो जाता है ।
इस प्रकार के लोगों में धैर्य की इतनी कमी होती है कि ये बहुत अधिक मीठे खाना शुरू कर देते हैं । उन्हें ऐसा भोजन पसंद होता है जिसमें बिना कोई मेहनत के स्वाद को तुरंत निकाला जा सके ।
रसगुल्ले , कोल्ड ड्रिंक इत्यादि
इन्हें ऐसे भोजन पसंद नहीं होते जो खाने के कुछ घंटों के बाद ऊर्जा बढ़ाते हैं । जैसे प्रोटीन इत्यादि । यदि देखा जाए तो इस प्रकार के लोग ओवर ईटिंग करते हैं । उन्हें इस बात का पता नहीं होता कि कितना खना है अर्थात् क्वांटिटी और क्वालिटी का ज्ञान नहीं हो पता है इसीलिए ऐसे लोगों में गैस्ट्रिक की समस्या अधिक देखने को मिलती है ।
कहने का अर्थ है कि जितने भी काल्पनिक लोग हैं वे भोजन के स्वाद पर आवश्यकता से अधिक केंद्रित होते हैं, जितना अधिक रंग विरंगे दृश्यों को दिमाग़ में भरते हैं उतना ही अधिक रंग-विरंगे स्वादिष्ट भोजन से पेट को भरने की कोशिश करते हैं ।
वैचारिक और काल्पनिक क्रिया में अति करने से मस्तिष्क थकता है और उसके थकान को ख़त्म करने के लिए बार भोजन और त्वरित ऊर्जा देने वाले भोजन का खाना होता है । गहरायी से देखने पर यह ज्ञात होता है कि मस्तिष्क में थकान कल्पना और विचारों के प्रबंधन में से हुई है और उस कमी को भोजन से से पूरा किया जा रहा जो कि बहुत वैज्ञानिक नहीं है ।
यदि थके हुए मस्तिष्क को योग प्राणायाम और ध्यान के माध्यम से ढीला और शांत कर लिया जाए तो उसे बार बार भोजन करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । और साथ साथ ऐसे तीव्र मीठे व तीखे भोजन की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी ।
योग मस्तिष्क में खिंची हुई नदियों को ढीला करने में समर्थ है , इसलिए इसका प्रतिदिन अभ्यास किया जाना चाहिए । इससे ज्ञाननेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियों में जो खिंचाव व तनाव है, ढीला किया जा सकेगा । और खाने की क्रेविंग को स्वतः ही समाप्त किया जा सकता है ।
प्राणायाम ज्ञाननेंद्रियों में खिंचाव को ठीक करते हुए थके हुए मस्तिष्क आराम पहुँचाता है । इस कारण इंद्रियाँ बेढंगे बर्ताव नहीं कर पाती हैं । उन्हें करने का मन भी नहीं करता है ।
ध्यान का अभ्यास करने से मन को ट्रेन किया जाता है जिससे विचार-रहित अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है ।
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