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इंद्रियाँ ग़लत आदतें क्यों बनाती हैं ?

2 years ago By Yogi Anoop

इंद्रियाँ ग़लत आदतें क्यों बनाती हैं ? 

क्या कभी हमने विचार किया है कि समस्याएँ हमारे अंदर क्यों हो रही हैं ?  लोग हसमैथुन क्यों करते हैं , लोग धूम्रपान क्यों करते हैं ? बहुत अधिक खाना या मुँह में हमेशा कुछ न कुछ डाले क्यों रखते हैं ? मुँह में हमेशा पान व तम्बाकू रखे रहना आख़िर क्यों ?

बजाय कि इसके पीछे के कारण जानने के, लोग समाधान के लिए बाह्य चिकित्सा का सहारा लेते हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तो इन समस्याओं के पीछे के मूल कारण होर्मोनल इम्बैलन्स को बताकर (जो कि आंशिक रूप से कहीं न कहीं सत्य भी है) दवाइयों का ख़ज़ाना पेश कर देता है । यह भी सत्य है कि इन दवाइयों के चक्रव्यूह से निकल पाना रोगी के लिए लगभग असम्भव सा होता है ।  भिन्न भिन्न क़िस्म के सॉल्ट मस्तिष्क में जाकर कुछ ऐसे नशे जैसा प्रभाव छोड़ते जैसे कि रोगी संसार से परे चले गया हों । ऐसा लगता है कि एक नशे को छुड़वाने के लिए किसी अन्य नशे को दिया गया हो ।

 यह भी सत्य है कि आपातकालीन अवस्था में इस चिकित्सा से बेहतर अन्य कोई भी चिकित्सा नहीं हो सकती है । सभी को चाहे वह योगी ही क्यों न हो उसे कभी न कभी आपातकाल का सामना करना पड़ता है । आधुनिक चिकित्सा का धर्म है तात्कालिक कारणों को ध्यान में रखते हुए रोगी का सहयोग करना ही मात्र होना चाहिए । 

किंतु वह समस्या जो इंद्रियों के ग़लत व्यवहार से आ रही हो उसे एक योग प्रणाली के माध्यम से ही समझा जा सकता है । 

योग व ध्यान का धर्म है समस्या के मूल का ज्ञान करना और उसका समाधान निकलाना  है । जो समस्या इंद्रियों के दोष के कारण आ रही हो उसका समाधान योग दर्शन से अच्छा और कोई नहीं दे सकता है । उस ऐंद्रिक हलचल को रोकना जिसके कारण रोग पैदा हो रहा है, उस अव्याहरिकता को समझना जो जाने-अनजाने में एक सामान्य व्यक्ति दिनभर करता हैं । 

यदि कोई एक व्यक्ति जो दिन भर मुँह में पान रखकर चबाता रहता है,  को गहराई से देखा जाय तो उसका मन मस्तिष्क चाहता क्या है ? 

सत्य यह है कि उसका अंतर्मन चिंगम (मुँह में कुछ न कुछ चबाते रहना) नहीं चिंतन चाहता है और गहराई में जाना चाहता है किंतु उसे चिंगम (चबाने) दे कर शांत करने का असफल प्रयास किया जाता है । एक सामान्य व्यक्ति का मन भी कही न कहीं उच्च क़िस्म का है, वह गहराई में जाने को उत्सुक रहता है, उसके अंदर निरंतर चलने वाले विचार व्यावहारिक जगत में कुछ करना चाहते हैं किंतु उनको सिखाया ही नहीं गया कि व्यवहार में जिया कैसे जाता है । 

इसलिए वे पान व सिगरेट का दिन भर इस्तेमाल करके मस्तिष्क को नशायुक्त बनाए हुए रखता हैं । इससे इंद्रियाँ भी व्यस्त रहती हैं और नशे से मन भटकता भी नहीं ।  


  ज्ञानेंद्रिय और सूक्ष्म मन उन आवश्यक एवं अनावश्यक विचारों को कहीं न कहीं हटाने के लिए जबड़े, लिंग (हसमैथुन) को चलाते रहता हैं । यद्यपि मुँह को चलाने से मन को आराम मिलता है । मुँह के चलने का अर्थ है मस्तिष्क के के दोनों टेम्पल के हिस्से का अभ्यास होना । उससे हाइपर टेन्शन नहीं होने पाता है ।  


और जब मन और इंद्रियों के माध्यम से शरीर की नदियों में खिंचाव आने लगता है तब वह हस्तमैथुन करता है , ज्ञानेंद्रिय के परेशान से वह हस्त मैथुन (कर्मेंद्रिय) करके ज्ञानेंद्रिय को शांत करने का प्रयास करता है । हस्तमैथुन करने से मस्तिष्क अल्पकाल के लिए शांत हो जाता है । किंतु नाड़ियों को शांत करने का यह अल्पकालिक मार्ग है । इसका लती होना गम्भीर रोग का कारण होता है ।


पान मस्तिष्क को थोड़ा नशा भी देता है, और साथ साथ मन को व्यस्त भी रखता है , पान खाते खाते किसी सामाजिक जगह पर बोलना आसान भी नहीं है , क्योंकि पान का थूक सामने व्यक्ति के चेहरे पर जा सकता है, उसमें भी कुछ न कुछ मैनज्मेंट हो ही जाता होगा । किंतु ध्यान दें मन और इंद्रिय को शांत करने के लिए यदि पान और सिगरेट जैसे नशयुक्त तत्वों का इस्तेमाल किया जाता है तब इसका अर्थ है तब इसका अर्थ है कि मन की समस्या का समाधान नशे से निकलने का प्रयास किया जा रहा  है । 

कहने का अर्थ है कि अंतर्मन ने स्वयं को पान व चिंगम के माध्यम से ऐसा व्यस्त दिया है कि भविष्य में रोग निश्चित है । 


ध्यान दें, यदि मन किसी व्यावहारिक कार्य में संलग्न हो तो जबड़े व मुँह चल ही नहीं सकता । मन आनुभविक गहराई में जितना अधिक उतरता जाता है उतना ही उसकी इंद्रियों में ठहराव आता जाता है , इंद्रियाँ रुक सी जाती हैं । क्योंकि मन उस समय अनुभव में व्यस्त हो चुका हुआ होता है । अनुभव करते समय प्रभावी अंतर्मन, इंद्रियों को नगण्य कर देता है । 

मेरा ऐसा मानना है कि इंद्रियों में जितनी भी ग़लत आदतें पनपती हैं, उसका मूल कारण है कि मन स्वयं को अंतर्मन की तरफ़ ले जाना चाहता है, वह स्वयं के मन को विकसित देखना चाहता है । वह ठहराव चाहता है । किंतु व्यवहार की कमी व सही निर्देशन की कमी से इंद्रियाँ उस ग़लत कार्य की तरफ़ प्रेरित हो जाती हैं । 

और यही भविष्य में उसके मन मस्तिष्क की प्रगति का सबसे बड़ा अवरोधक तत्व बन जाता है । साथ साथ देह को किसी न किसी रोग में व्यस्त कर देता है । 


समाधान 


  • जिस मार्ग को चुने उसमें कुछ वर्षों वर्षों तक धैर्य रखने की आवश्यकता होती है । सम्भव है कि प्रारम्भ में कर्म के अनुरूप सफलता न मिले किंतु धैर्य रखते हुए कर्म में संलग्न रहें । वह कारण ही आनंदित करने लगता है । 

  • सफलता के लिए जिस व्यापार का चुनाव किया है , उसमें गहराई से समझ बढ़ाएँ और स्वयं के मस्तिष्क के विकास उसे ही आधार बनाएँ ।

  • योग प्राणायाम एवं ध्यान का अभ्यास अवश्य करें जिससे धैर्य मजबूर रहे और अंतरतम में ख़ुशी मौजूद रहे । क्योंकि क़र्म करते समय बीच बीच में धैर्य जबाब देने लगता है । 


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