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इन्द्रियों के स्वामित्व: विचारों पर नियंत्रण

1 week ago By Yogi Anoop

इन्द्रियों के स्वामित्व: विचारों पर नियंत्रण

इन्द्रियों के स्वामित्व पर बात करते समय हमें यह समझना चाहिए कि यह केवल एक मानसिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक अनुभव है। जब हम योग और ध्यान के दृष्टिकोण से इसे देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि हम अपनी इन्द्रियों के स्वामी होते हैं। उन ऐंद्रिक क्रियाओं में, जिनमें कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ पूर्ण रूप से नियंत्रण में आती हैं, उनके हम स्वामी होते हैं। हमारी इन्द्रियों की गति में जितना अधिक नियंत्रण की कला विकसित होती है, उतना ही हमारी देह और मस्तिष्क में विद्युत तरंगें उस गति की ओर प्रेरित होती हैं, जो हीलिंग के लिए जिम्मेदार होती हैं।

कहने का मूल अर्थ यह है कि इन्द्रियों की गति जितनी शांत और गंभीर होती जाती है, उतना ही मस्तिष्क में विद्युत तरंगों का वेग धीरे-धीरे कम होता जाता है और परिणामस्वरूप, यह देह और मस्तिष्क स्वयं को स्वयं से ही हील करने लगती है। मैं इसे ही स्थिर ऊर्जा का नाम देता हूँ।

इन्द्रियों के स्वामित्व से क्षमता का विकास

जैसे-जैसे हम इन्द्रियों के स्वामित्व की दिशा में आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे कार्य करने की क्षमता बढ़ती जाती है। बिना थके, इन इन्द्रियों की कार्यक्षमता में अत्यंत वृद्धि हो जाती है। यही क्षमता उन अनंत क्षमताओं को विकसित करने में सहायक हो जाती है, जो मस्तिष्क में सुषुप्त अवस्था में होती हैं और सामान्यत: जिनका उपयोग व्यक्ति नहीं कर पाता।

मेरे अनुभव में, लीडरशिप और स्वामित्व का अर्थ केवल जोखिम उठाने से कहीं अधिक है। यह अपने सभी दसों इन्द्रियों को एक संतुलित व नियंत्रित गति देना और किसी भी कार्य में लंबे समय तक गहनता से अनुभव करना है। किसी भी कार्य में संलग्न होने के लिए इन्द्रियों में शिथिलता का होना अत्यंत आवश्यक होता है। यदि यह शिथिलता मध्यम स्तर तक हो, तो मस्तिष्क की अपार शक्ति को विकसित किया जा सकता है और इन्द्रियों को बिना थकान के लंबे समय तक कार्यरत रखा जा सकता है। मेरे अनुभव में, इस स्थिति में रोगों के आने की संभावना लगभग नगण्य होती है।

यह इसलिए होता है क्योंकि सभी काइनेटिक (गतिज) ऊर्जा का प्रमुख स्रोत स्थितिज (पोटेंशियल) ऊर्जा ही होती है। मेरे अनुभव में, स्थिरता की अनुभूति मात्र से ही उस पोटेंशियल ऊर्जा के स्तर को प्राप्त किया जा सकता है और उसके बाद बाह्य अथवा गतिज ऊर्जा की भरमार हो जाती है। गतिज ऊर्जा का तात्पर्य दैनिक जीवनचर्या में कार्य करने के लिए आवश्यक ऊर्जा से है।

प्रयोग और नियंत्रण

साधना के इस मार्ग में प्रयोग की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। स्वामी अर्थात्, आपके द्वारा इन्द्रियों पर किए गए प्रयोग, मस्तिष्क में न केवल विद्युत तरंगों की गति को नियंत्रित करते हैं, बल्कि मस्तिष्क में होने वाली रासायनिक क्रियाओं की दिशा को भी नियंत्रित और सतर्क कर देते हैं।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि साधना के प्रयोगों के दौरान गुरु को सूक्ष्म विधियों का खुलासा नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि कुछ वर्षों तक स्वयं प्रयोग करने पर ही उसके परिणामों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। इससे भविष्य में शिष्यों को किसी भी प्रकार की समस्या न हो, इसलिए जब तक पूर्ण निश्चिंत न हो जाएँ, तब तक गुरु अपने प्रयोगों को समाज में प्रकट नहीं करते। यहाँ तक कि वे अपने सगे-संबंधियों और अपने अत्यंत प्रिय शिष्यों को भी इसकी जानकारी नहीं देते। यह मेरा अनुभव है।

योग और ध्यान की भूमिका

जब साधक या गुरु किसी भी विषय पर प्रयोग करता है, तो उसे कहीं न कहीं घबराहट होती है। यह मेरा स्वयं का अनुभव रहा है। इसलिए एक सामान्य व्यक्ति को अपने अभ्यासों में, जो उसे उसके गुरु द्वारा दिए गए हैं, शंकाएँ होना स्वाभाविक है।

किन्तु ध्यान दें, प्रयोगों के दौरान न केवल प्रत्यक्ष प्रमाण, बल्कि अनुमान प्रमाण से भी मैंने बहुत सफलता प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त, अन्य प्रमाणों पर मेरा बहुत कम विश्वास रहा है।

साधना में ध्यान, प्राणायाम और आसन के प्रयोगों के दौरान बहुत सारी अवस्थाओं को देखना पड़ता है। किंतु जैसे-जैसे इन्द्रियों और मस्तिष्क की शिथिलता बढ़ती जाती है और जैसे-जैसे मन एवं मस्तिष्क का विश्राम बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे प्रयोगों में सफलता प्राप्त होती जाती है।

आध्यात्मिक गुरु की पहचान

आध्यात्मिक गुरु, जिसने स्वयं अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया हो, वह केवल धार्मिकता तक सीमित नहीं होता। वह किसी भी कर्मकांड तक सीमित नहीं रहता, क्योंकि उसने आत्म-निरीक्षण और आत्म-नियंत्रण से जुड़े अभ्यासों में सफलता प्राप्त कर ली होती है।

यहाँ तक कि उसकी इन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की गति, जिसे सामान्य भाषा में “जेस्चर” कहा जाता है, से ही अनुभव किया जा सकता है कि वह आध्यात्म में कितना अनुभवी है। एक और सच्ची पहचान यह है कि आध्यात्मिक गुरु स्वयं से अत्यधिक जुड़ने की रुचि नहीं रखते।

सच्ची आध्यात्मिकता में कोई छलावा नहीं होता। आध्यात्मिकता की वास्तविक परीक्षा तब होती है, जब व्यक्ति अपनी आंतरिक स्थिति को पहचानता है और अपने विचारों पर नियंत्रण रखता है। आध्यात्मिक गुरु वही होते हैं, जो अपने शिष्यों को भ्रमित नहीं करते, बल्कि उन्हें वास्तविकता से जोड़ते हैं।

मेरे अनुभव में, यदि कोई तथाकथित आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्यों और अनुयायियों को अपने अनुभव और प्रयोगों के बजाय केवल कहानियों के माध्यम से आत्म-नियंत्रण की बातें सिखाता है, तो इसका सीधा अर्थ यह है कि उसके अपने प्रयोगों का अभाव है। ऐसे गुरु के पास वास्तविक और व्यावहारिक अनुभव की कमी होती है। यदि कोई अनुभव होता भी है, तो वह उसे व्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं रखता। किसी भी गुरु की काल्पनिक उड़ान, बिना तर्क और ज्ञान की कसौटी पर रखी गई बातें, व्यवहार की कमी को दर्शाती हैं।

व्यक्तिगत अनुभव और विकास

सच्चे व्यक्तित्व और सच्चे गुरु वही होते हैं, जो स्वयं को निरंतर विकसित करते हैं और अपने इन्द्रियों के स्वामित्व की जिम्मेदारी लेते हैं। वे अपने अंदर चल रहे विचारों के प्रवाह को समझकर, विचारों की नदी से हटकर उसके तट पर स्थिर होकर बैठ जाते हैं—अर्थात् तटस्थ हो जाते हैं।

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