ईश्वर को याद करने की आख़िर क्यों ज़रूरत पड़ती है ?
अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वर को वस्तु की तरह याद करने की बात की जा रही है , आख़िर जिसकी सत्ता सार्वभौमिक है उसे याद कैसे किया जा सकता है , क्योंकि याद करने वाला भी वही ईश्वर ही हुआ । इस प्रश्न ने कम से कम से ये साबित कर दिया कि प्रश्न कर्ता ईश्वर को एक वस्तु की तरह याद करने की बात कर रहा है ।
यह तो सिद्ध है कि याद करने की ज़रूरत उसे पड़ती है जिसका अस्तित्व वस्तु के रूप में हो या हमारे स्वयं के द्वारा मनोकल्पित अर्थात् मन के द्वारा बनाया गया हो । जो व्यक्ति अपने मस्तिष्क में ईश्वर को एक आकार के रूप में निर्माण करके विश्वास करते हैं उन्हें ही उसे याद करने की आवश्यकता पड़ती है । क्योंकि उनके मन ने ही उस सत्ता को दिमाग़ में बनाया है ।
साथ में ये कहना आवश्यक है कि कुछ धर्म वाले लोग उसको आकार नहीं देते है , कहते हैं कि वह निराकार है , निराकार कहने के बावजूद वो ये कहते हुए पाए जाते हैं कि वो ऊपर है । इसका अर्थ ही है कि उनके मस्तिष्क के अंदर कोई न कोई उस ईश्वर का आकार है जो किसी एक विशेष दिशा में बैठा है । तभी तो ऊपर की ओर इशारा करते हैं । यदि वो आकार विहीन है तो उसकी कल्पना ऊपर या नीचे की दिशा में भला कैसे हो सकती है ।
अब दूसरी बात यदि उसका कोई आकार है तो वह सीमित है, ईश्वर हो नहीं सकता और यदि आकार नहीं है उसे याद कैसे भला कर सकते हो । और यदि वह याद का विषय है तब भी वह सीमित ही है ।
ये तो सबसे बड़ा डबल स्टैंडर्ड है और साथ साथ नासमझी है कि उसको याद किया जाय ।
सत्य तो यह है कि इस मनुष्य ने अपनी अज्ञानतावश ईश्वर को याद करने वाली वस्तु बना दिया , ये सत्य है कि सामान्य लोगों के जीवन में होने वाले छोटे मोटे दुखों से निजात पाने के लिए ये स्मृति फलदायी है । उनके अंदर साहस और धैर्य बढ़ाने में सहयोग भले ही करता है ।
सामान्य बुद्धि में ये एक विश्वास पैदा करता है जो शांति देता है, मन में एक सीमा तक मानसिक स्थिरता पैदा करने में सहायक होता है, किंतु साथ साथ ये बताना भी आवश्यक है कि विस्वाश से जो भी अनुभव होता है उसमें पूर्ण ज्ञान नहीं है , क्योंकि उसको सबसे पहले कल्पना में लाया जाता है और उसके बाद अनुभव में परिवर्तित किया जाता है ।
जैसे भूत की कल्पना सर्वप्रथम की जाती है उसके बाद उसका अनुभव मन और देह में डर के रूप में किया जाता है । अर्थात् भूत के डर का जो भी अनुभव हो रहा है उसका मूल आधार मन के द्वारा की गयी कल्पना है । सबसे पहले भूत की कल्पना की गयी फिर उसके बाद डर पैदा हुआ ।
स्वर्ग और नरक की की कल्पना सर्व प्रथम मन में की जाती है वहाँ पर होने वाले सुख एवं दुःख का अनुभव करने की कोशिश बाद होती है । अनुभव का आधार स्वर्ग और नरक की कल्पना से किया जा रहा है ।
जब कि यह एक उल्टी प्रक्रिया है । मन में वस्तु पहले पैदा की गयी और उसका अनुभव बाद में किया गया । यह ज्ञानात्मक नहीं है ।
यह ज्ञानात्मक तब होता जब भूत से मिलते और उसके भूत वाले गुणों से परेशान होकर दुखी हो जाते । जब आप रसगुल्ले को खाते हैं और फिर उसके बाद स्वाद का अनुभव करते हैं । कहने का मूल अर्थ है कि वस्तु से साक्षात्कार होने के बाद ही वास्तविक अनुभव होता है । यदि वस्तु की सिर्फ़ कल्पना करके अनुभव करने की कोशिश किया जा रहा है तो मैं इस अनुभव को काल्पनिक अनुभव मानता हूँ । यही अज्ञानता का मूल कारण है ।
इसी तरह ईश्वर की कल्पना करके उसे याद करने की कोशिश को साधना व ध्यान का नाम दिया जाता है , जिसको मैं मूर्खता कहता हूँ । वह याद करने का विषय है ही नहीं । जो साधक स्वयं के अस्तित्व का अनुभव कर रहा है , उसको ईश्वरीय अनुभव कहना सार्थक है । क्योंकि वही सत्य है । स्वयं का अस्तित्व कल्पनातीत है पर अनुभव योग्य है ।
Copyright - by Yogi Anoop Academy