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ईशान कोण: देह का स्वास्थ्य

1 week ago By Yogi Anoop

ईशान कोण: देह के स्वास्थ्य पर प्रभाव (शरीर: ईशान कोण के ठीक न होने से रोग) 

ईशान शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है और यह दो मुख्य भागों से मिलकर बना है।

• ईश – जिसका अर्थ है स्वामी, ईश्वर, या नियंत्रक।

• आन – जो दिशा या कोण को सूचित करता है।

इस प्रकार, ईशान का अर्थ है “ईश्वर की दिशा” या “वह कोण जहाँ ईश्वर का वास माना जाता है।”

जिस प्रकार भौतिक घर में ईशान कोण का विशेष महत्व होता है, उसी प्रकार शरीर रूपी घर में भी ईशान कोण का स्थान है। शरीर में आत्मा ही इस घर का स्वामी व ईश्वर है, और इसकी अभिव्यक्ति उन पाँच ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से होती है, जो एक ऐसे कोण में स्थित हैं जो उत्तर और पूर्व दिशा में स्थित है।

यदि शरीर की संरचना पर ध्यान दें, तो देह के मध्य भाग अर्थात नाभि के ऊपरी हिस्से को उत्तर दिशा, और निचले हिस्से को दक्षिण, सामने के हिस्से को पूर्व और देह के पिछले अर्थात पीठ के हिस्से को पश्चिम दिशा के रूप में मैं देखता हूँ। इस दृष्टि से देखें तो उत्तर दिशा मस्तिष्क, जो जल क्षेत्र से भरा है, और उसी के नज़दीक पूर्व में चेहरे की दिशा में, जहाँ सभी ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, मुँह इत्यादि हैं) स्थित हैं, उसे ईशान कोण के नाम से जाना जाता है।

आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा—ये पाँच इंद्रियाँ चेतन आत्मा को बाह्य संसार से जोड़ती हैं। इन्हीं इंद्रियों के द्वारा आत्मा बाह्य जगत से संपर्क करती है और ज्ञान को आत्मसात करती है। यहाँ तक कि इन्हीं इंद्रियों और सूक्ष्म इंद्रियों के माध्यम से दृश्य का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही स्वयं अर्थात् दृष्टा का भी ज्ञान होता है। इसीलिए ईशान कोण को खुला रखना चाहिए। इस कोण को कभी भी अधिक समय तक ढँककर नहीं रखना चाहिए, अर्थात चेहरे को ढककर रखने का अर्थ है कि स्वयं के अस्तित्व पर खतरा।

इसे कई दृष्टियों से समझने का प्रयास किया जाना चाहिए, जैसे इस ईशान कोण अर्थात् चेहरा व ज्ञानेन्द्रियों को शुद्ध रखना चाहिए। उसे साफ़-सुथरा रखना चाहिए। ऐसी स्थिति होनी चाहिए जिससे इन्द्रियों में सक्रियता बनी रहे। निष्क्रियता का अभाव रहे।

आँखें: जैसे आँखें साफ़-सुथरी होनी चाहिए, तनाव में न हों, ठंडी और शांत होनी चाहिए, सूखी और रूखी नहीं होनी चाहिए। अर्थात जब भी “मैं” आँखों के माध्यम से बाहर के संसार से संपर्क करे, तब उसे यह संसार धूमिल न दिखे। यह संसार उसे सच्चाई का एहसास करवाए।

जिह्वा: इसी प्रकार जिह्वा के माध्यम से “मैं” अर्थात् आत्मा जब भोजन के माध्यम से संपर्क में आता है, तब उसे भोजन के साथ-साथ स्वयं की भी अनुभूति होती है। “मैं” स्वाद की अनुभूति के माध्यम से स्वयं में स्थिरता की भी अनुभूति करता है। अर्थात् यह तो सिद्ध है कि ईशान कोण में स्वादेंद्रिय कितना अधिक महत्व रखती है।

नासिका एवं स्पर्श: अर्थात् स्वस्थ की अनुभूति, यह भी ईशान कोण में स्थित है, यह श्वास के माध्यम से अनुभूति करवाती है। ध्यान दें, देखना, स्वाद, श्वास—इन तीनों में स्पर्श की अनुभूति सम्मिलित होती है, अर्थात् ये चारों इन्द्रियाँ जो ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में स्थित हैं, इस घर के स्वामी के लिए बहुत ही उत्तम और स्वास्थ्यकर होती हैं। केवल कान अर्थात् सुनने की क्रिया ही एक ऐसी इन्द्रिय है जो पूर्ण रूप से ईशान कोण में स्थित नहीं होता है।

ध्यान दें, इन सभी इन्द्रियाँ, जो ईशान कोण में स्थित हैं, उनमें हल्कापन, शांति, जलीयता और स्थिरता होनी चाहिए । तभी “मैं” अर्थात् आत्मा जो इस गृह (देह) का स्वामी है वह स्वयं को शांतिपूर्वक वाह्य संसार से अच्छी तरह से जोड़ पाता है , और साथ साथ इन इन्द्रियों के मध्य रहते हुए आनंदपूर्वक जीवन बिताता है । अन्यथा उसे दुख और दर्द में ही जीवन गुजारना पड़ता है । 

भौतिक भवन में ईशान कोण का महत्व : 

ध्यान दें इसी प्रकार भौतिक भवन में भी ईशान कोण के सिद्धांत को लागू किया जाता है । यदि इस सांसारिक भवन को देखा जाए, तो उसमें देह के ही समान ईशान कोण होता है , जो उत्तर-पूर्व की दिशा में स्थित होता है, वह पवित्र और खुला होना चाहिए। वहाँ पर आकाश, जल, वायु का पूर्ण समावेश होना चाहिए। तभी स्वास्थ्य पूर्ण रूप से संभव हो सकेगा । तभी घर में निवास करने वाले पुरुष (स्वामी) को शांति और विश्राम का अनुभव होता है । और रोगों से बचाव भी होता है , वह इसलिए कि चार प्रमुख तत्वों को बहुत सरल और प्राकृतिक ढंग से प्राप्त किया जा रहा होता है ।  

इसीलिए भारतीय परंपरा में भौतिक भवन के ईशान कोण में दूर-दूर तक रुकावट नहीं रखी जाती है। उस स्थान को आकाश, जल और वायु से युक्त रखा जाता है। अर्थात खाली स्थान होना चाहिए, साफ़-सुथरा व स्वच्छ होना चाहिए, जल का प्रभाव होना अति उत्तम है, कुछ ऐसे ही जैसे सभी ज्ञानेन्द्रियाँ जल से ही प्रभावित हैं। बिना जल के उनका चलायमान होना संभव नहीं हो सकता है।

ईशान कोण का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव :

शरीर रूपी भवन के प्रमुख द्वार (पांचों ज्ञानेन्द्रियों) के सामने  किसी भी प्रकार की बाधा नहीं होना चाहिए , रुकावट नहीं होना चाहिए , आकाश अर्थात खाली स्थान होना चाहिए, जल का प्रभाव होना चाहिए ताकि भवन के अंदर शांत और ठंडी हवा का प्रवेश हो , ऊर्जा का प्रवेश हो , प्रकाश का प्रवेश हो , वह स्वास्थ्यकर होता है । 

ये सभी ज्ञानेन्द्रिय जो ईशान कोण में ही स्थित हैं यदि शांत और ढीली साफ़ सुथरी , हल्की रहती हैं तो इस भवन में रहने वाला स्वामी अपने आप को शांत रूप से प्रकट रख सकता है । वह शांत ही रहेगा । 

• मन शांत, स्वच्छ और सकारात्मक विचारों से भरा होता है, तो जीवन में समरसता बनी रहती है।

• मन में विकार, ईर्ष्या, क्रोध, भय या नकारात्मकता का बोझ कम से कम होता है , वह इसलिए कि ईशान कोन पर हल्कापन है , आकाश, जल और वायु का संतुलन बना हुआ है । यही सम्पूर्ण मानसिक स्वास्थ्य की पहचान है । इस विधि से मानसिक स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार से क्षति नहीं पहुँचती है । वैसे ही जैसे इसका समाधान क्या है?

योग प्राणायाम ध्यान इत्यादि के अभ्यास से इसी ईशान कोण को स्वच्छ रखने में सर्वाधिक सहायता मिलती है । इन सभी ज्ञान्द्रियों को जितना भारमुक्त रखते हैं उतना ही घर का स्वामी “मैं’ पूर्ण रूप से शांत और अनानास में इस भवन में निवास करते हुए जीवन यापन करता है । 

सत्संग और अध्ययन: अच्छे विचारों और सत्संग से मन का पोषण करें, किसी को देखें , किसी से भी वार्तालाप करें , तो उसमें ऐसी ही बाते हिंदी छाइए जो स्थिरता और शांति प्रदान करे । इसका अर्थ है कि ईशान कोण को भारी नहीं होने दिया जा रहा है । जैसे घर के ईशान कोण में देवताओं की मूर्तियाँ या पवित्र ग्रंथ रखे जाते हैं।उससे मन के अंदर हल्कापन बना रहता है । इसी के विपरीत घर में प्रवेश करते ही दीवार पर एक नागी मूर्ति दिख जाये तो मन में जो भी विचारों की उत्पत्ति होगी वह भला कैसी होगी । मन स्थिर होने के बजाय और चलायमान हो जाएगा। ईशान कोण में वही तत्व होने छाइये जो स्थिरता प्रदान करे । 

अंततः मेरे अपने आध्यात्मिक साधना के अनुसार शरीर रूपी घर में ईशान कोण में स्थित सभी ज्ञानन्द्रियों के माध्यम से जो भी प्रवाह अंदर मस्तिष्क (उत्तर) की दिशा में प्रवेश करेगा वह उत्तर की दिशा को शांति और स्थिरता ही प्रदान करेगा । मानसिक रोगों को नहीं आने देगा । यहाँ तक कि मस्तिष्क में तापमान की वृद्धि नहीं होने देगा । मेरे अनुभव में उत्तर दिशा के पूर्ण शांत और स्थिर होने का अभिप्राय है शरीर रूपी भवन के सभी दिशाओं को स्वतः ही स्वस्थ कर देना ।

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