ईशान कोण का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव:
भारतीय वास्तुशास्त्र और योगदर्शन में ईशान कोण (उत्तर-पूर्व दिशा) को विशेष महत्व दिया गया है। इसे देवताओं का स्थान माना गया है, जहाँ से ऊर्जा का प्रवाह सहजता से होता है। लेकिन क्या इसका प्रभाव केवल भौतिक भवनों तक सीमित है, या यह हमारे शरीर और मन पर भी गहराई से प्रभाव डालता है? यदि हम शरीर को एक जीवित मंदिर मानें, तो इसमें भी ईशान कोण की स्थिति और उसकी शुद्धता मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली प्रमुख शक्तियों में से एक है।
ईशान कोण और मानसिक संतुलन का गहरा संबंध
शरीर में ईशान कोण का संबंध मस्तिष्क और पाँच ज्ञानेंद्रियों से है। हमारे विचार, अनुभव, और चेतना की स्थिति इस कोण से प्रभावित होती है। जब यह कोण स्वच्छ, हल्का और संतुलित होता है, तो मन भी स्वाभाविक रूप से शुद्ध और सकारात्मक रहता है। परंतु जब यह कोण बाधाओं से भरा हो, भारीपन से ग्रस्त हो, या अव्यवस्थित हो, तो मानसिक तनाव, चिंता और अवसाद जन्म लेने लगते हैं।
यदि हम इस तथ्य को तर्क की कसौटी पर परखें, तो पाएँगे कि शरीर के मुख्य द्वार अर्थात पाँच ज्ञानेंद्रियाँ—आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा—ईशान कोण में ही स्थित होती हैं। यह देह रूपी भवन के उत्तर पूर्व में ही स्थित होती हैं । जब इन इंद्रियों के कार्य करने में कोई रुकावट नहीं होती, जब इसके अंदर रहने वाला स्वामी “मैं” स्वच्छ, निर्बाध और विवेक पूर्ण ढंग से बाहरी संसार से संपर्क कर पाता हैं, तब मस्तिष्क तक जाने वाली सूचनाएँ स्पष्ट और सटीक होती हैं। यह स्पष्टता मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि मन उन्हीं सूचनाओं पर प्रतिक्रिया करता है, जो उसे बाहरी जगत छान कर आती हैं ।
यदि ये इंद्रियाँ बाधित होती हैं, या इनका कार्य अव्यवस्थित हो जाता है, तो मन में आने वाली सभी सूचनाएं संदेह, भ्रम, अशांति, भय, और अन्य मानसिक विकारों से ग्रसित होने लगती अहीन । यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में भी यह नियम दिया गया है कि भवन के ईशान कोण में कोई भारी वस्तु नहीं रखनी चाहिए, किसी भी प्रकार की बाधा नहीं होनी चाहिए ताकि वहाँ से प्रवाहित होने वाली ऊर्जा मुक्त और स्वच्छ बनी रहे। ताकि उस भवन में जानी वाली ऊर्जा और उस भाव से बाहर निकलने ऊर्जा में किसी भी प्रकार की बाधा न हो ।
यह नियम शरीर पर भी लागू होता है—आप समझ सकते हैं कि थकी और भारी इन्द्रियों के माध्यम से अंदर ली गई सूचनाएं मन मस्तिष्क में बहुत विश्राम की अवस्था उत्पन्न नहीं कर पाती हैं , और इसी के साथ उन थकी हुई इन्द्रियों के द्वार अंदर वाला स्वामी जब अपनी भावनाओं को प्रकट करता है तब भी उसमें गहराईं नहीं दिखती है ।
मानसिक विकारों की जड़ें और ईशान कोण की भूमिका
आजकल मानसिक तनाव और अवसाद जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धति मुख्य रूप से इन्हें तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) और मस्तिष्क रसायनों (ब्रेन केमिकल्स) की असंतुलन से जोड़कर देखती है, परंतु योग और आध्यात्मिक विज्ञान इसे ऊर्जा असंतुलन और इंद्रियों की अशुद्धि के रूप में देखते हैं।
जब ईशान कोण में हल्कापन और स्वच्छता बनी रहती है, तो मन भी स्थिर और संतुलित रहता है। परंतु जब यह कोण भारी हो जाता है—अर्थात् जब मन नकारात्मक विचारों, असत्य, भय और क्रोध से भर जाता है—तो मानसिक विकार जन्म लेते हैं। इसी कारण ध्यान, योग और प्राणायाम जैसे अभ्यासों को इस कोण को शुद्ध और संतुलित रखने का साधन माना गया है।
यदि वेदों, उपनिषदों और योगसूत्रों को देखें, तो उनमें भी इस दिशा को शुद्ध और सकारात्मक बनाए रखने पर बल दिया गया है। उदाहरण के लिए:
• वास्तु शास्त्र में कहा गया है कि ईशान कोण में मंदिर या पूजा स्थल होना चाहिए, क्योंकि यह स्थान परम चेतना से संपर्क करने का केंद्र है।
• योग शास्त्र में कहा गया है कि ध्यान के लिए मस्तिष्क को शांति की स्थिति में रखना आवश्यक है, और यह तब संभव होता है जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाहरी संसार से प्रभावित हुए बिना, सहज रूप से कार्य करें। हठ योग में तो इन्द्रियों की भौतिक रूप से सफ़ाई की भी बात की गई , जैसे आँखों को धोना , कुंचल , भिन्न भिन्न प्रकार की नेति करना , अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों को शुद्ध करना । यहाँ तक कि राजयोग में भी ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्रता के माध्यम से शुद्धीकरण करने का प्रयत्न किया जाता है । ध्यान योग के माध्यम से इन्द्रियों को ही सर्वप्रथम ढीला किया जाता है । यह कहा जाता है कि पहले अपने इन्द्रियों को ढीला करो तो ही इस भावना में चित्त को शांत करके स्थिर पूर्वक बैठ पाओगे । यहाँ तक कि भक्तियोग में भी इष्ट देव पर एकाग्रता के माध्यम से इन्द्रियों में ढीलापन किया जाता है और शीतलता उत्पन्न किया जाता है ।
• श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इन्द्रियों की शुद्धता पर विशेष बल दिया है। इनके स्वस्थ होने पर इन्हें घोड़ों की तरह उपयोग में लाया जा सकता है । तभी मन में स्पष्टता और स्थिरता होती है, तब व्यक्ति स्वयं के वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है।
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