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हमेशा अच्छा सोचना क्या !

4 years ago By Yogi Anoop

मैं सुन रहा था, गुरुदेव प्रवचन कर रहे थे, वे स्वयं को अवतार सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे , उनकी भाव भंगिमा देखते ही बनती थी , जैसे जैसे उनकी भाव भंगिमा बदलती वैसे वैसे उनके सुनने वालों के चेहरे पर भी मुस्कान बदलती । 

कुछ शेरों शायरियाँ भी उसी में झोंक देते । हालांकि शेरों शायरियाँ सुनने वाली बूढ़ी माताओं के ऊपर से गुजर जाता । बीच बीच में यही कहते रहते कि सारा दिन अच्छा सोचो , भगवान के बारे में सोचो , दिन भर अपने जीवन को समर्पित कर दो । 

उनका कहना था दिन भर भगवान के बारे में सोचना ही अच्छा है । और जो भी सोचना होता है वह सभी ग़लत है । 


तो मैंने उन गुरुदेव से पूछ ही लिया कि आख़िर भगवान के बारे में क्या सोचूँ ! 

उनका कहना था कि ये सोचो कि वही सबको पैदा किया है , उसी ने पालना है , वही हमारा रक्षक है , उसी की कृपा हमारे ऊपर है । यही बातें दिन रात सोचते रहो । कहीं पर भी अन्य बातें मत सोचो । 

मैं कहता हूँ कि आख़िर उसके परमिट के बारे में इसके सोचने से क्या लाभ होगा !

क्या खना खाते  समय अच्छा सोचूँ ? या खाने का स्वाद लूँ !

तो क्या नहाते समय अपने शरीर की गंदगी साफ़ करूँ या अच्छा सोचूँ ? 

तो क्या सोते अपने को भूल जाऊँ या अच्छा सोचूँ ? 

तो क्या पढ़ते समय पढ़ने में मन लगाऊँ या अच्छा सोचूँ ? 

तो क्या TV देखते समय अच्छा सोचूँ  ?

तो मूवी हाल में मूवी में एंजॉय करूँ या वहाँ पर भी अच्छा सोचूँ ?

तो कार ड्राइव करते समय कार ड्राइव करने पर फ़ोकस करूँ या उस समय भी अच्छा ही सोचूँ ?

मेरी समझ में नहीं आता कि मुझे कब समय मिलेगा कि मैं अच्छा सोचूँ ! 

जब मैं अपने काम के दौरान अच्छा सोचने लगता हूँ तो काम पर से ध्यान ही हट जाता है । 

आख़िर कैसे करूँ ?


सत्य ये है उस अच्छी सोच को अपने कर्म से अलग कर दिया है । जब कि कर्म में निपुणता और उसमें संलग्नता से अच्छी सोच स्वतः आती है । अच्छी सोच लाना मूर्खता है , अच्छी सोच परिणाम है वो कर्म में संलग्नता और उसने एकाग्रता से आती है । कर्म के पहले अच्छी सोच में डूबने का अर्थ है कर्म से सन्यास ले लेना । कर्म को ही न करना । 


भक्ति विज्ञान केवल अच्छे सोचने पर सलाह दे सकता है पर जीवन कर्म और ज्ञान पर अर्थात् व्यावहार (कर्म)  और ज्ञान पर निर्भर करता है । व्यवहार और ज्ञान जब मिलते हैं तब अच्छी सोच स्वतः ही पैदा हो जाती है । और ये सोच आनुभविक और स्थायी होती है जो कभी न मिटने वाली होती है । अन्यथा आपको अच्छी सोच का रट्टा मारना पड़ता है । 


संत कबीर दिन भर सोचते नहीं थे , वे पढ़े लिखे भी नहीं थे , वो जुलाहा थे । सूत कातते कातते उनके अंदर से वे सभी दोहे निकले । सूत कातने में अनुभव शीतला उनको काम आती और यही अनुभव उन्होंने जीवन के हर एक क्रिया में लगा दिया । इस दुनिया को भी देखते तो उसी नज़र से , अंत यही हुआ कि वे पूर्ण ज्ञानी हो गए । 

अनुभव ही आपको observer वाले स्टेट में डाल सकता है, और वहीं पर अच्छी सोच का स्वतः जन्म होता है । 


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