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दुःख का मूल कारण

3 years ago By Yogi Anoop

द्रस्टा और दृश्य का संयोग ही दुःख (रोग) का कारण है


“जो स्वभाव है उसे त्यागना संभव नही और जो स्वभाव नही उसे त्यागना असंभव नही है।”  जैसे अग्नि का स्वभाव उसकी ज्वलनशीलता है .अर्थात अग्नि को उसकी ज्वलनशीलता से अलग नही किया जा सकता है । अग्नि और उसकी ज्वलशीलता दोनो में अविक्क्षिन्न सम्बन्ध है। वस्तुतः उसको सम्बन्ध भी नही कहा जा सकता है । ये दोनो तो एक ही है। ये दोनो दो नही हैं।यह सिद्ध है कि दुनिया मे कोई ऐसी आग नही मिलेगी जिसमे ज्वलनशीलता न हो। बिल्कुल  उसी प्रकार पुरूष व आत्मा का मूल स्वभाव उसकी अपनी शांतिमयता है । उसको उसकी शांतिप्रियता से अलग नही किया जा सकता है । आत्मा व शांतिमयता दो अलग अलग तत्व नही हैं। दोनों एक ही है। यही कारण है कि योग दर्शन में पुरूष अर्थात आत्मा को “त्रिविधदुखान्त्यन्तनिवृत्तिरात्यान्तिक पुरूषार्थः”  कहा गया । यहां पर पुरूषार्थ का शाब्दिक अर्थ आत्मा के मूल अर्थ से है अर्थात  पुरूष व आत्मा का मूल स्वभाव तीनों दुखों से परे शांतिमय है ।

उस आत्मा को उसके स्वभाव शांतिप्रियता से अलग नही किया जा सकता है । आत्मा तब तक शांत रहता है जब तक वह अपने स्वरूप मे रहता है किन्तु जब उसका सम्बन्ध दृश्य से होता है तभी दुख की उत्पत्ति होती है ।

इसीलिये महर्षि ने इन दोनो के संयोग को दुख का कारण कहा ।

किन्तु प्रश्न उठ सकता है कि दृष्टा अर्थात अत्मा और इस दृष्य संसार के मध्य सम्बन्ध होता ही क्यों है। जब आत्मा शुद्ध और शांत है तो संसार से उसका संयोग होता ही क्यों है।दृष्य और दृष्टा का सम्बन्ध भला होता ही क्यों है। सत्य तो ये है कि इन दोनो का सम्बन्ध अज्ञानतावश है और साथ साथ क्षणिक भी है । क्षणिक इसलिए हैं क्योंकि ज्ञान होने पर यह समाप्त हो जाता है । 


गहन निद्रा मे व्यक्ति पूर्णतः शान्त होता है वहॉं पर न तो कोई विचार और न कोई कल्पना होती है किन्तु स्वप्न और जागृत अवस्था मे व्यक्ति का सम्बन्ध किसी न किसी से मानसिक व शारीरिक रूप मे हो जाता है परिणामस्वरूप क्लेश ह्यदुखहृकी उत्पत्ति होती है । जब उसका दृष्य से सम्बन्ध होता है तब उसके चित्त मे भावनात्मक उद्वेग की उत्पत्ति होती है ।उस समय जिस समय उसका दृष्य से सम्बन्ध होता है उस दृष्य से सम्बधित सुख होगा या तो दुख होगा । इसी तरह मनुष्य अपना पूरा जीवन सुख दुख मे गुजारता है

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