मन सोचने में अभ्यस्त है , इसकी अधिकता इतनी अधिक है कि स्वयं मन मस्तिष्क को ही क्षति पहुँचाना शुरू कर देता है । विचारों की इसी अनवरत प्रक्रिया को अवरुद्ध करने के लिए सांसारिक मार्ग से हटकर किसी एक धर्म विशेष का सहारा लेता है ।
वहाँ पर एक विशेष तरह से वैचारिक शिक्षा दे जाती है जिससे कुछ महीने वर्ष आसानी से निकल जाते हैं । किंतु कुछ वर्षों के बाद वही वैचारिक पद्धति एक और मानसिक बोझ बन जाती है ।
बनिस्बत सांसारिक लोगों के, धार्मिक व्यक्तियों में तो सोचने की लत की अधिकता देखी जाती है । वह इसलिए कि सांसारिक मनुष्य यह जानता है कि वह सोच की क्रिया में अधिकता कर रहा है, उससे उसको कष्ट हो रहा है , दुःख हो रहा है । किंतु एक धार्मिक व्यक्ति सोच की क्रिया की अधिकता को जानता ही नहीं , जब कि सोचने के क्रिया उसमें सर्वाधिक होती है । उसे सोचने की अधिकता से समस्याएँ आती है फिर भी उससे अपरिचित रहता है , उसे लगता है कि परमात्मा दुःख दे रहा , परमात्मा परीक्षा ले रहा है ।
धर्म में ऐसी कहावत प्रचलित भी है कि धार्मिक स्वभाव वाले लोगों को परमात्मा अधिक दुःख देता है ।
मेरे एक प्रयोग के दौरान -
एक स्त्री को जिन्हें कानों से निरंतर आवाज़ें आती थी, (आज कल इसे बीमारी के रूप में देखा जाता है । इसे Tinnitus के नाम से जाना जाता है) मेरे पास आयीं । मेरे द्वारा पूछने पर कि कहीं आप बहुत ओवेरथिंकिंग व बहुत अधिक सोचने की क्रिया तो नहीं करती है , उनका उत्तर था, बिल्कुल भी नहीं ।
पूरी तरह से विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ कि वे रात में भी अपने गुरु द्वारा दिए गए ‘शबद’ का 5000 बार मन में निरंतर रेपटिशन करती रहती हैं । उनके गुरु का कहना था कि स्वप्न में जब यह मंत्र का उच्चारण बार बार चलने लगे तो समझो परमात्मा के नज़दीक आ गए हो । वह स्त्री अपने गुरु के स्वप्न को साकार करने में लगी थी । वे अपनी इस सोच के माध्यम से परमात्मा में लीन होना चाहती थी, ऐसा उनका कहना था ।
सत्य यह है कि उन्हें इस बात का आभास ही नहीं था कि वह मस्तिष्क पर शब्दों का अनावश्यक दबाव दिए हुए हैं । इस बात का ज्ञान ही कि उनमें सोच की अधिकता है । विचारों के इस निरंतर दबाव से ही उनकी मानसिक समस्याएँ बढ़ रही हैं, यह उनको पता ही नहीं ।
इस प्रकार के स्वभाव के लोगों में नींद समाप्त हो जाती है , आँतों में मल त्याग की आदत ख़त्म हो जाती है, सिर हमेशा हमेशा के लिए भारी रहने लग जाता है , और साथ साथ reflux की समस्या स्थायी रूप से घर कर जाती है । इन सभी समस्याओं के पीछे का मूल कारण है कि मस्तिष्क को किसी और जगह पर आवश्यकता से अधिक व्यस्त कर दिया गया है, व्यस्त नहीं बल्कि उलझा दिया गया है । वह अपने स्वभाव में आ ही नहीं पाता है । यह तक कि नींद में भी उसको उलझाए रखने का एक अनूठा प्रयोग करवाया जा रहा है ।
यह भी सत्य है कि इस प्रकार के लोगों को समझना आसान है किंतु समझाना बहुत कठिन है कि उन्हें सोचने की बीमारी लग गयी है । तथाकथित धार्मिक सरल स्वभाव वाले लोगों को ऐसा लगता है कि सोचने से उस अनंत को प्राप्त किया जा सकता है । किंतु शारीरिक और मानसिक रोगों में इतनी अधिकता आ जाती है जिससे इनकी आत्मिक प्रगति हो ही नहीं पाती है । वह अपने ‘स्व’ में कभी भी रुक नहीं पाता है । सिर्फ़ कल्पनाओं और विचारों के माध्यम से उस अनंत सत्ता को प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहता है ।
इस प्रकार के लोगों को समझना इसलिए आसान होता है क्योंकि वह परमात्मा को विचारों से प्राप्त करने की बात करता है । वह साधक चाहता है कि कोई अनंत सत्ता उससे मिल जाय , उसके पास आ जाए ।
कुछ उदाहरण दिए भी जाते हैं जैसे -एक बूँद का समुद्र में विलय हो जाना ही अनंत की प्राप्ति ।
किंतु ‘विलय’, ‘अनंत सत्ता की प्राप्ति’ , ‘आत्मा व परमात्मा की प्राप्ति इत्यादि’ शब्दों से साधकों के अंदर काल्पनिकता का निर्माण ही होता है , उसे ऐसा लगता है कि किसी छोटे तत्व का बड़े आकर में विलय हो जाना ही आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाना है । आख़िर ये सब कल्पना नहीं तो क्या है ।
ऐसे धार्मिक व्यक्तियों को कोई आकारमय वस्तु की चाहत होती है । आकार में अनंत की प्राप्ति की इच्छा ही उन्हें सोचने के लिए प्रेरणा देती है । अर्थात् सोचने की प्रक्रिया तभी प्रारम्भ हो सकती है जब कुछ प्राप्त करने की इक्षा हो ।
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