जीवन में किसी भी विचारों के बारे में बार बार रेपटिशन करना इसलिए घातक है क्योंकि मन मस्तिष्क के लिए वह व्यावहारिक नहीं है । जब मन और मस्तिष्क बिना किसी अनुभव किए किसी भी बात का जो काल्पनिक है , का अधिक समय विचार करता है तब उसमें एक तरह से फ़्रस्ट्रेशन पैदा होती है ।
मेरे अनुभव में तो उसमें सबसे अधिक सेक्शूअल फ़्रस्ट्रेशन ही होती है । उसकी नाड़ियों में खिंचाव बढ़ता जाता है , ध्यान दें नाड़ियों को आराम चाहिये किंतु उन्हें रेपेटिटिव विचारों का ऐसा भोजन दिया जा रहा है जो उसके सिस्टम से मेल ही नहीं करता तब मस्तिष्क की कोशिकायें एक समय सीमा के बाद चीज़ों को बाहर फेकनें लगती हैं ।
जैसे मुँह से खाना अंदर लेते हैं , मुँह से जबरन अंदर भर तो लेते हैं पर पेट उसे वापस मुँह की तरफ फेंकने लगता है । इसी को reflux कहते हैं । खाने को किसी तरह पेट से तो ठूंस दिया पर पर सिस्टम आपको घंटों घंटों तक आपको डकार कराते कराते चक्कर में डाल देता है ।
अब दूसरी समस्या तो अभी आपने देखी ही नहीं , इस रेपेटिटिव विचारों से अंतड़ियाँ गंदगी या मल को बाहर ही निकालना कम कर देती है । अर्थात् क़ब्ज़ की समस्या बढ़ जाती है ।
मुझसे लोग कहते हैं क़ब्ज़ ठीक करता हूँ तो सिर में भारीपन बढ़ जाता है , डकार बढ़ जाती है , और सिर का दर्द और डकार ठीक करता हूँ तो क़ब्ज़ बढ़ जाती है । उन्हें ये समझ नहीं आता कि समस्या की जड़ कहाँ पर है ।
इसीलिए वायु नियंत्रित करते हैं तो पित्त बढ़ जाता है और पित्त नियंत्रित करते हैं तो कफ बढ़ जाता है ।
मेरे अनुसार तो इस समस्या में तो आयुर्वैदिक ऋषियों की दवाई भी कोई कार्य नहीं कर पाती है, अब करे कैसे आयुर्वैदिक ऋषि ने तो पूछा ही नहीं कि तुम्हारी मानसिक दशा कैसी है , दिनचर्या कैसी है । बस पेट सफ़ा करने का चूर्ण दे दिया क्यों किताबों में लिखा है समस्त रोगों का जड़ क़ब्ज़ है ।
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