जब मस्तिष्क को किसी भी एक ही दृष्टिकोण से सोचने की प्रक्रिया की आदत हो जाती है तब उसे अवसाद की तरफ़ जाने में देर नहीं लगती । मन मस्तिष्क और इंद्रियों को बस एक ही मार्ग का ज्ञान है, उसे स्वयं को शांत करने के लिए किसी अन्य दृष्टिकोण का ज्ञान नहीं तो समझो उसके मस्तिष्क का एक पैटर्न बन गया है । वह किसी एक ही सोचने के पैटर्न का आदती हो गया है । यद्यपि उसका मस्तिष्क किसी अन्य पैटर्न को शीघ्रता से स्वीकार भी नहीं करता है । सम्भवतः इसीलिए ऐसे लोगों को जीवन भर दवाइयों के सहारे ही जीना पड़ता है ।
मेरे स्वयं के अनुभव में समाधान है किंतु थोड़ा समझ और अभ्यास की आवश्यकता होती है । उस पैटर्न को विवेक से समाप्त किया जा सकता है अथवा एकाग्रता के द्वारा उसे हटाया जा सकता है । मैं इन दोनों विधियों के इस्तेमाल पर ज़ोर देता हूँ । यहाँ पर सोचने के पैटर्न को हटाने के लिए कुछ विशेष अनुभवात्मक सलाह देने का प्रयास कर रहा हूँ ।
विशेष
जब भी किसी सोच के विशेष पैटर्न से परेशानी होने लगे तो उस पैटर्न को हटाने के लिए कुछ शारीरिक व मानसिक क्रिया में कर्मेंद्रियों इंद्रियों को भिड़ा देना चाहिए ।
अति सोच के समय टहलना लाभदायक होता है । जिस सोच का दुष्प्रभाव मस्तिष्क पड़ रहा होता है और उसके कारण उसकी हृदय गति में अनावश्यक तेज़ी आ जाती है , यदि उस समय वह किसी शारीरिक क्रियाओं का अभ्यास शुरू कर देता है तब उसके हृदय की वह गति जो सोच के कारण बढ़ रही थी वह अब शारीरिक अभ्यास से बढ़ने लगती है । इस क्रिया से उसके अंदर आत्म विश्वास पुनः वापस आ जाता है । इस प्रक्रिया से उस पैटर्न का हृदय पर दुष्प्रभाव समाप्त भी हो जाता है ।
मानसिक क्रियाएँ जब हृदय और फेफड़ों की गति बढ़ा देती हैं तब रक्त में ऑक्सिजन के संचार में अस्थिरता भी देखने को मिलने लगती है । इससे मस्तिष्क के कई ग्लैंड्ज़ अपने hormones असंतुलित तरीक़े से रक्त में प्रवेश करवाते हैं । यही कारण है कि अवसाद के समय व्यक्ति को अपनी एकाग्रता किसी और विषय में जोर जबरजस्ती के साथ लगाना चाहिए । इससे मस्तिष्क में विचारों का पैटर्न टूट सा जाता है । और उसके मन का मस्तिष्क के सूक्ष्म तन्तुओं पर नियंत्रण अधिक हो जाता है ।
सोचना एक आदत है । अवसाद के स्वभाव वाला व्यक्ति अपनी सोच में इतनी तीव्रता लाता है कि एक क्षण में ही पूरे शरीर के अंदर उसके विचार फैल कर दुष्प्रभाव देने लगते हैं । हठ योग विज्ञान कहता है आसन के अभ्यास से रीढ़ को इतना शक्तिशाली बनाओ कि मस्तिष्क से आने वाले विचारों से उसके शरीर में तुरंत ही नकारात्मक दुष्प्रभाव न पड़े । जब शरीर के अंगो पर उसके नकारात्मक सोच का दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा तब मस्तिष्क थोड़ी ही देर में स्वतः ही शांत हो जाता है ।
कुछ महीनो के आसन के अभ्यास के बाद रीढ़ और मस्तिष्क की कोशिकाएँ इतनी मज़बूत और शांत हो जाती हैं कि वे बाहर से आने वाले विचारों को भी ग्रहण करने से माना कर देती हैं । बस आवश्यक विचारों को ही ग्रहण करने की इजाज़त देती हैं , वह इसलिए कि वे विचार उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही होती हैं ।
योग विज्ञान में इस सत्य को बहुत गहराई से समझना चाहिए कि वे सभी आसन किस विधि से किए जाएँ, उसका तरीक़ा क्या होना चाहिए , कितना और कब रोका जाना चाहिए , उसमें साँसों का प्रयोग होना चाहिए अथवा नहीं । यह सब एक अनुभवी गुरु से ही निर्धारित किया जाना चाहिए जिससे समस्त तंत्रिका तंत्र को गहराई से शांत किया जा सके ।
प्राणायाम भी बहुत आवश्यक है । प्राणायाम के अभ्यास से लयरहित मस्तिष्क को स्थिर किया जा सकता है । इससे संशयात्मक विचारों से मुक्ति मिल सकती है । प्राण की गति , नियंत्रण , लय , कुम्भक और उसमें अनुभव , ये सभी मिलकर मस्तिष्क को बहुत तीव्रता से शांत कर देते हैं ।
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