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चन्द्र-सूर्य नाड़ी का नाभि पर दुष्प्रभाव

1 year ago By Yogi Anoop

चन्द्र-सूर्य नाड़ी का नाभि पर दुष्प्रभाव

चाहे वह मस्तिष्क हो, शरीर हो अथवा नाड़ियाँ हों, इन सभी के दो पक्ष हैं एक सूर्य और दूसरा चन्द्र । 

देह में सूर्य का प्रमुख श्रोत उसके के मध्य क्षेत्र में स्थित नाभि केंद्र है और  चन्द्र का प्रमुख स्थान उसके उत्तर पूर्व क्षेत्र में स्थित समस्त इंद्रियाँ हैं । सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो ये इंद्रियाँ ही हैं जो समस्त अंगों को चलायमान करती हैं । यहीं से वात का जन्म होता है । इसीलिए चंद्रमा पक्ष से प्रेरित मस्तिष्क और मन वात ग्रसित होता है । उसमें मूड स्विंग्स भी सर्वाधिक होते देखे गये हैं । ध्यान दें मैं यहाँ पर बाहय चंद्रमा की बात नहीं कर रहा हूँ ।यहाँ चन्द्र नाड़ी व इंद्रियों की सूक्ष्मता की बात हो रही है । 

 मेरे अनुसार कहीं न कहीं मूल रूप से इन्ही इंद्रियों की चंचलता के कारण ही रोगों की उत्पत्ति होती है । आख़िर रोग हैं क्या ? 


इसीलिए मैं हमेशा यह कहता हूँ कि इंद्रियों  की चंचलता ही रोग है ।और इनका स्थिर होना ही निरोग व निर्वाण है ।

जब तक ये चन्द्र पक्ष स्थिर नहीं होता तब तक सूर्य पक्ष अर्थात् नाभि केंद्र मज़बूत नहीं हो सकता है । कभी कभी रोगियों को यह भी लग सकता है कि नाभि अर्थात् सूर्य पक्ष के कमजोर होने से मन व इंद्रियों की कमजोरी हो गई है । किंतु मूलतः आनुभविक रूप में यह सत्य नहीं है । 

यद्यपि हठ योग की साधना में सबसे पहले नाभि के क्षेत्र को मज़बूत करने का प्रयास किया जाता बजाय कि चन्द्र पक्ष को ठीक करने के । वह इसलिए क्योंकि पहले अंगों को जिस पर विचारों का दुष्प्रभाव है, उसे ही ठीक किया जाना चाहिए । इस अवस्था में रोगी की इक्षाशक्ति बेहतर हो जाती और उसका इंद्रियों के व्यवहार पर अधिक नियंत्रण हो सकता है । 


ध्यान दें राजयोग की साधना में सबसे पहले आसन के उपयोग का ज़िक्र नहीं है । इसमें सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए ही साधन बताया गया है, जैसे यम और नियम । इनके अनुसार इंद्रियों को नियमित किए बिना , इनको स्थिर किए बिना अन्य किसी भी साधन का प्रयोग करना बहुत लाभकारी नहीं होगा । 

इसीलिए महर्षि पतंजलि ने आसन और प्राणायाम के पहले यम और नियम का ज़िक्र किया है । उनके अनुसार यम नियम के अभ्यास से ही इंद्रियों को स्थिरता मिलती है और उसके बाद ही आसन का अभ्यास धीरे धीरे करना चाहिए जिससे सूर्य और चन्द्र का बैलेंस किया सके । 


 यदि ज्ञानात्मक दृष्टि से देखा जाये तो यही सत्य है । जब तक इंद्रियाँ और मन अनावश्यक निर्माण करना बंद नहीं करती तब तक स्थिरता को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । तब तक पेट के मध्य भाग (नाभि से संबंधित समस्या) को भी तनाव मुक्त नहीं किया जा सकता  है । 


   अंततः इंद्रियों में पूर्ण स्थिरता आवश्यक है ,यद्यपि भौतिक  दृष्टि से इसे मृत्यु कहते हैं, सांसारिक लोग इस अवस्था को मृतप्राय समझने की भूल करते हैं । एक अन्य दृष्टि से देखा जाये तो  इसे गहन निद्रा भी कहते हैं । 

किंतु ज्ञानात्मक दृष्टि से देखा जाये तो इसे निर्वाण कहते हैं । 


शारीरिक मृत्यु तो इंद्रियाँ और देह को सदा के लिये स्थिर कर देती हैं किंतु इंद्रियों की दूसरी स्थिर अवस्था है जिसे निद्रा व सुषुप्ति अवस्था कहते हैं ।  इसे अल्पकालिक मृत्यु भी कहा जाता है । बिना इस अवस्था के प्राप्त किए इंद्रिय और देह का कोई भी कार्य चल नहीं सकता है । 

ध्यान दें उपर्युक्त दोनों अवस्थाएँ सभी को प्राप्त करनी ही है । यह उसके मूल स्वभाव में है । इससे बचा नहीं जा सकता है । 


किंतु इन्ही इंद्रियों की स्थिरता जब स्वयं के ज्ञानात्मक अभ्यास से प्राप्त होती है तब उसे स्थित प्रज्ञ कहते हैं । इसीलिए योगियों और ऋषियों ने ध्यान के अभ्यास की बार बार चर्चा किया । 

इसका मूल अर्थ है कि इंद्रियाँ और मन स्वयं के मूल स्वभाव में विलीन हो चुकी हैं । यहाँ पर देह और इंद्रियाँ स्वयं का स्वाभाविक कार्य कर रही होती हैं किंतु ज्ञानात्मक दृष्टि से उनमें पूर्ण स्थिरता आ जाती है । आँखें इस संसार को देखती है किंतु अंतरतम पूर्ण स्थिर होता है । 

अब इनमें कोई परिवर्तन नहीं सकता है । यदि विचार किया जाय तो यह ज्ञात होता है कि इंद्रियों की चंचलता से शरीर के समस्त अंगों पर दुष्प्रभाव पड़ता है । 


अब प्रश्न के मूल पर आते हैं । इंद्रियाँ अर्थात् देह का चन्द्र पक्ष के असंतुलन से सूर्य अर्थात् नाभि केंद्र कमजोर हो जाता है । इसीलिए मैं हमेशा इस बात पर ज़ोर  देता हूँ कि वैचारिक पक्ष के असंतुलन से ही नाभि अर्थात् सूर्य पक्ष कमजोर हो जाता है । यदि ध्यान के अभ्यास से इस वैचारिक पक्ष को नियंत्रित कर लिया जाये तो नाभि पर बार बार होने वाले दुष्प्रभाव को नियंत्रित किया जा सकता है । इसके साथ हठ योग और प्राणायाम के माध्यम से सूर्य अर्थ नाभि को और मज़बूत किया जिससे वह मस्तिष्क को मज़बूती दे सके । 

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