वात के चलायमान होने पर चित्त चलता है , थोड़ा और सामान्य भाषा में इसे समझने की कोशिश करें ,
इस देह में वायु के अस्थिर होने पर मन व चित्त का अस्थिर होना । यदि इस संसार में मनुष्यों पर परीक्षण किया जाय तो सबसे अधिक मानसिक रोगी इस देह में वायु के अस्थिर होने के कारण मिलेंगे । पित्त और कफ़ के असंतुलन से मानसिक रोग बहुत कम देखने को मिलते हैं । मेरे पास आने वाले अधिकतम रोगियों में से वायु रोग के कारण मानसिक समस्या देखा गया है ।
यदि गहराई से विश्लेषण किया जाय उन सामान्य व्यक्तियों पर लागू होता है जिनका ध्यान शरीर पर अधिक रहता है , जब मानसिक एकाग्रता कम रहती है तब शरीर के अंदर छोटी से छोटी हरकतें भी मन पर भारी पड़ जातीं हैं । इसका प्रमुख कारण ये होता है कि समस्या का मूल कारण स्वयं को समझ न आकार मूल कारण कुछ और ही समूह में आ जाता है ।
जैसे चेहरे में फुनगी होने मात्र से उसको समझा जाने लगा , मन की एकाग्रता इतनी कम है कि फुंसी को कैन्सर समझनें लगा । जब मन की एकाग्रता आवश्यकता से कम होती है तब मन स्वयं के द्वारा बनाई गयी कल्पनाओं में स्वयं को ही फँसा लेता है । वो इसलिए कि सामान्य मन कल्पना तो कर लेता है किंतु उसका विश्लेषण नहीं कर पाता है ।
सम्भवतः बुद्धिमान ऋषियों ने सामान्य लोगों के लिए इस सूत्र “चले वातम, चले चित्तम” की रचना की , क्योंकि ये सभी देह की परेशानियों में ही उलझ कर रह जाते हैं । बहुत योगियों और ऋषियों को भी दैहिक रोग हुए पर उसके कारण मानसिक रोग नहीं हुआ क्योंकि उनकी एकाग्रता का स्तर बहुत अधिक था ।
जैसे -जैसे रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद अनेकों को दैहिक रोग हुए किंतु उनका मन उन दैहिक रोगों के कारण से डिप्रेशन में नहीं गया ।
मेरे अपने ध्यान अनुभव में स्थूल में जो भी परिवर्तन होता है उसका मूल कारण सूक्ष्म ही है , अर्थात् सूक्ष्म ही स्थूल में स्थायी परिवर्तन का कारण है । किंतु सूक्ष्म में जो भी परिवर्तन होता है उसका कारण स्थूल नहीं है ।
ये भी सत्य है कि स्थूल , सूक्ष्म में बदलाव करता है किंतु जो भी बदलाव होता है उसमें स्थायित्व नहीं है । सामान्य बुद्धि के समूह से ये परे अवस्य है किंतु रही सत्य है कि चित्त के चलायमान होने पर देह और इंद्रियों में वात का प्रकोप बड़ता और घटता है ।
सामान्यतया आयुर्वेद में वात के बढ़ने पर चित्त अर्थात् मन में उतार- चढ़ाव की बात की जाती है जो कि सामान्य सत्य भी है । किंतु ऋषियों और मुनियों ने चित्त के निरोध की बात की , उन्होंने कहीं भी वात के निरोध की बात नहीं की । उन्होंने यह नहीं कहा कि वात को नियंत्रित नहीं करोगे तो चित्त कभी नहीं नियंत्रित हो पाएगा ।
उन्होंने मन व चित्त को नियंत्रित करने के लिए जो भी उपाय भी बतलाए उसमें वात कहीं भी नहीं था , उन्होंने तो मन और चित्त को नियंत्रित करने के लिए उसके सूक्ष्म कारण इक्षाओं पर नियंत्रण की बात की , न कि वात की ।
उन्होंने ये बताया कि चित्त में उतार - चढ़ाव होने पर उसका दुष्प्रभाव स्थूल इंद्रियाँ और शरीर पर पड़ता है ।जैसा कि सभी को अनुभव में है , कि मानसिक परेशानी के समय में शरीर बेहाल कैसे हो जाता है । अर्थात् ये सिद्ध है कि मन व चित्त चंचल होने पर इंद्रियों और देह के कई अंगों में चंचलता का बढ़ना स्वाभाविक हो जाता है ।
मैंने दोनों विधाओं (चले वातम, चले चित्तम”-चले चित्तम चले वातम) पर चलने की कोशिश करते हुए माध्यम मार्ग को अपनाया ।
“चले वातम चले चित्तम” को आसान प्राणायाम और भोजन के माध्यम से सिद्ध किया और “चले चित्तम चले वातम” को यम नियम और ध्यान साधना के माध्यम से सिद्ध किया ।
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