भौतिक जगत में ब्रह्मचर्य को सेक्स करने से सदा के लिए रोक देने से जोड़ा जाता है । किंतु मेरे अनुभव में सेक्स करने और न करने से इसका अभिप्राय नहीं होना चाहिए । इसका मूल अभिप्राय यह है कि उसे युवा काल में वीर्य के अनावश्यक निरंतर स्खलन करने की लत से बचाना क्योंकि इस प्रकार की लत से मानसिक और दैहिक बीमारियों के होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं । इंद्रियों की एकाग्रता में कमी देखने को मिलती है साथ साथ युवा देह मुरझाने जैसा लगता है । मेरे पास ऐसे ऐसे युवा आते हैं जो दिन में 20 से 25 बार हस्तमैथुन करते हुए पाए जाते हैं । अब इस लत से वे अपने मस्तिष्क का विकास कैसे कर सकते हैं । जब एक युवा दिनभर इसी लत में व्यस्त है तो वह अन्य कार्य में मन को कैसे केंद्रित कर पाएगा ।
यह युवा उम्र आदत बनाने की उम्र है जिसमें जो आदत एक बार बना दी जाती है उसको आसानी से हटाया नहीं जा सकता है इसीलिए इस उम्र में यम नियम के अभ्यास पर ज़ोर दिया जाता है । यम नियम ज्ञानेंद्रियों का अभ्यास है जिसमें बरम्म्ह्चर्य सिर्फ़ एक अंग मात्र है । युवा मस्तिष्क को किसी एक आदत में ढालकर उसे शक्तिशाली और निरोगी बनाया जाने का प्रयास किया जाता है ।
ध्यान दें जीवन को, जिसे ऋषियों ने लगभग 100 वर्षों का माना, 4 आश्रमों में बाँटा । 25-25 वर्षों के ये वो चार पड़ाव हैं जो मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए बहुत आवश्यक होते हैं । प्रथम पड़ाव में बचपने से लेकर 25 वर्षों तक व्यक्ति के युवा शक्तिशाली मस्तिष्क को कड़े नियमों में रखने की सलाह दो जाती थी, ब्रम्म्ह्चर्य आश्रम में बिताना होता था । इसमें बच्चे का पूरा ध्यान यम नियम पर लगाना होता था , बच्चे के स्वभाव के अनुरूप भौतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा में प्रवीण कराया जाता था ।
कम से कम इससे यह पता चलता है कि भारतीय सभ्यता में हज़ारों वर्ष पूर्व भी बाल विवाह नहीं होता था । यद्यपि मध्यकाल में मुसलिम शासन के दौरान बाल विवाह जैसे कुप्रथा का जन्म हुआ किंतु वह भी आधुनिक शिक्षा के माध्यम से अब समाप्त होने के कगार पर है ।
25 वर्ष के उम्र के बाद ही विवाह अर्थात् गृहस्थ आश्रम में जाने का नियम था । यद्यपि आधुनिक काल में 18 व 21 वर्ष को बालिग़ उम्र कहा जाता है , उसी में वह गार्हस्थ्य आश्रम में जाने का अधिकारी है । चूँकि आधुनिक युग विज्ञान युग है, जिसमें इंद्रियों की उत्तेजना बहुत शीघ्रता से ही बढ़ जाती है इसमें सेक्स से सम्बंधित विचार की उत्पत्ति बहुत तेज़ी से आ जाती है , किंतु यदि पूर्व काल में देखा जाए तो भी इस प्रकार के विचारों की कमी न थी । इसलिए लिए युवा बच्चों का ध्यान न भटके , उन्हें किसी विषय में पूर्ण दक्षता के लिए इंद्रियों का अभ्यास करवाया जाता था । इसीलिए उनमें कुछ युवकों के सिर का मुंडन भी करवा दिया जाता था । उन्हें दर्पण देखने की मनाही हुआ करती थी । उन्हें यम नियम का बहुत अधिक अभ्यास करवाया जाता था जिससे उनकी अंदर युवा ऊर्जा का इंद्रियों के नियंत्रण में लगा दें ।
उस काल में भी स्वभाव के अनुरूप विषय चुनने को कहा जाता था , उसी से उनके अंदर आध्यात्मिक विकास की सम्भावनाएँ बढ़ती थी इसीलिए पाँच पांडवो में सभी भाइयों को उनके स्वभाव के अनुरूप विषय दिया गया और उसमें वे महारथी तो हुए ही साथ साथ उनमें उसी एकाग्रता से नैतिकता व आध्यात्मिकता का विकास भी हुआ ।
कहने का मूल अर्थ है जिस उम्र में ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों की चंचलता बहुत तीव्रता से बढ़ती है उस उम्र में यम नियम का अभ्यास करते हुए उसका उपयोग किसी विषय में दक्षता के लिए किया जाता था । जिससे कि जब वह गृहस्थ एवं नौकरी इत्यादि में जाए तो स्वयं के जीवन को सम्भाल सके ।
मैं स्वयं को सौभाग्यशाली इसलिए भी मानता हूँ कि इस उम्र में मैं यम नियम इत्यादि के अभ्यास पर बहुत तीव्रता से कार्य कर रहा था । और उस युवा काल में ब्रम्म्ह्चर्य पर भी प्रयोग कर सका ।
ब्रम्म्ह्चर्य आश्रम का उद्देश्य यह बिलकुल भी नहीं था कि विवाह ही न करो, उसका उद्देश्य सिर्फ़ इतना था कि उस युवा काल में वह अपनी धारदार ऊर्जा को ज्ञान से नियंत्रित करना सीख ले । उस ऊर्जा में नैतिकता को सम्मिलित करवा दे । ध्यान दें युवा काल में शारीरिक और मानसिक ऊर्जा चरम पर होती है, उस समय अहंकार के आने की सम्भावनाएँ भी चरम पर होती हैं किंतु उस समय यदि उस ऊर्जा को नैतिकता से , यम नियम व ज्ञान से संचालित करवा दिया जाए तो वह शेष जीवन में आनंद ही आनंद होता है ।
इसीलिए योगियों व ऋषियों ने ब्रम्म्ह्चर्य साधना के माध्यम से इंद्रियों को ज्ञानवान बनाने का प्रयत्न किया ।
इस उम्र में मन को इतना एकाग्रता सिखायी जाती है कि मन के अंदर वे विचार न आएँ जो मन को उद्देश्य से भटका दें । इसीलिए गुरु परम्परा में शिष्यों को ब्रम्म्ह्चर्य के नियमों में थोड़े वर्ष तक बांध दिया जाता था । जिससे उसका मन और इंद्रियाँ भटकने न पाएँ ।
आधुनिक समाज में ऐसे आश्रम परम्परा का विधान नहीं है किंतु 18 वर्षों तक विवाह का विधान तो नहीं है , इसका अर्थ ही है कि उसे स्वयं के ऊपर ध्यान देने की पूर्ण ज़िम्मेदारी दी गयी जिससे उसके अंदर परिपक्कवता आ जाय । परिपक्वता आने पर वह सेक्स के साथ साथ जीवन में दायित्वों के निर्वहन का आनंद लेता है ।
Copyright - by Yogi Anoop Academy