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भक्ति स्वभाव वाला व्यक्ति !

2 years ago By Yogi Anoop

भक्ति स्वभाव वाला व्यक्ति ज्ञान के लिए स्थान ढूँढता है 

भक्ति स्वभाव का व्यक्ति कहता है कि आत्मा का निवास हृदय में है, हठ योगी कहता है कि आज्ञा चक्र अर्थात् पिटूयटेरी ग्रंथि में आत्मा का निवास है और राज योगी कहता है कि आत्मा का निवास भूमध्य में है ऐसे ही कुछ धर्मों के लोग आत्मा व परमात्मा को निराकार मानने के बावजूद भी उसे आसमान में ढूँढ रहे होते हैं । अलग अलग तरह के साधक आत्मा और परमात्मा को भी भिन्न भिन्न स्थानों में ढूँढने का प्रयत्न कर रहे होते  हैं । 

भक्तिवादी स्वभाव का व्यक्ति आत्मा की ऐसी ऐसी कल्पनात्मक व्याख्या करता है  जिसमें इंद्रियाँ और मन को उसी तरह से कार्य करवाया जाता है जैसे फ़िल्मों कल्पनात्मक ढंग से किया है । यद्यपि उनकी कल्पनतमकता में त्याग दिखता है जिससे उनकी इंद्रियों में ढीलापन आना शुरू होने लगता है । 

वह किसी व्यक्ति में त्याग और प्रेम देखता है, वह बिना किसी व्यक्ति के त्याग के सिद्धांत को समझ नहीं पाता है । किंतु किसी महान त्यागी व्यक्ति को अपना गुरु व भगवान मानता है और उसी के द्वारा स्वयं का विकास करता है । यह एकाग्रता उसको यम नियम का पालन करवा देती है , वह त्याग एवं वैराग्य से प्रेरित हो जाता है किंतु पूर्णतः वैरागी नहीं हो सकता, वह किसी संतोषी व्यक्ति को देखकर प्रेरित होता है किंतु पूर्ण रूप से संतोषी नहीं हो सकता है । 

कुछ वैसे ही वैसे ही ज़ैसे किसी मृत व्यक्ति को देखकर एक सामान्य व्यक्ति में वैराग्य जग जाता है किंतु वह वैराग्य क्षणिक होता है । 

वह वैराग्य बस उस स्थान विशेष तक सीमित है, ज़ैसे ही वह उस स्थान विशेष को छोड़ता है उसमें वही काम क्रोध लालच इत्यादि सब वापस आ जाते हैं । 

किंतु भारतीय ऋषियों के एक वर्ग ने भक्तिवाद पर ज़ोर दिया, वह इसलिए काम से काम स्थान परिवर्तन करके किसी थोड़ी डर के लिए ही सही , पवित्रता तो आए । 


    ध्यान दें व्यक्ति का स्वभाव जितना बहिर्मुखी होता है, उसके चिंतन का आधार दृश्य व स्थान ही होता जाता है । इसीलिए सामान्य व्यक्तियों की एकाग्रता के लिए मूर्तियाँ बनायी गयी । यहाँ तक कि जब वह किसी अदृश्य शक्ति के बारे में विचार करता है तो उसमें भी कहीं न कहीं दृश्य को ही आधार बनाता है ।  भले ही वह सात्विक ही क्यों न हो उसके चिंतन का आधार दृश्य ही होता है । यद्यपि बहिर्मुखी स्वभाव के लोगों में नकारात्मकता अधिक देखी जाती है । इसीलिए भारतीय ऋषियों ने बहिर्मुखी स्वभाव वाले लोगों में सात्विकता लाने के लिए भक्ति योग दे दिया । उन्होंने गुरुओं में, भगवान में, ऋषियों में त्याग की भावना देखने की बात की , इस पूरे संसार के सभी जीवों और वस्तुओं के अंदर भी पवित्रात्मा देखने की बात की, उनमें भक्ति लगाने की बात किया जिससे कि उनके अंदर सात्विकता, अहिंसात्मकता, संतोष, अघृणा इत्यादि पनपे  । 


   कुछ ऐसे भी अंतरज्ञानी ऋषि हुए जिन्होंने राज योग, हठ योग में भी साधकों को कोई न कोई दृश्य दे दिया जिससे वह स्वयं तक पहुँचने में कामयाब हों । राज योग में तो साधक को इस देह के अंदर ही आत्मा को बिंदु के रूप में ढूँढने को कहा । हठ योग में पिटूयटेरी ग्रंथि को ही आत्म चेतन कहा गया । उसे पवित्रतम स्थान कहा गया । वह इसलिए कि कहीं न कहीं दिमाग़ में दृश्य रूप ही चल रहा होता है । इसलिए उस पिटूयटेरी ग्रंथि पर ध्यान एकाग्र करने पर मन शांत होने लगता है । 


यदि उपनिषद में ऋषियों पर गहन अध्ययन किया जाए तो उसमें बहुतों ने जल को चेतन आत्म माना, वह इसलिए कि जल में जीवन है ।  कुछ ने प्राण वायु को चेतन तत्व माना । कुछ ने आसमान तत्व में चेतन की सत्ता को स्वीकार किया ।   

निहसंदेह ये सभी खोजें भारतीय ऋषियों की महत्वपूर्ण खोजों में से एक थी जो विश्व में किसी के द्वारा पूर्व में नहीं की गयीं । उन्होंने शरीर के अंदर ऐसे ऐसे बिंदुओं की भी खोज की जो शक्ति के भंडार थे । यहाँ पर मैं ये भी कहना चाहूँगा कि विश्व में किसी भी अन्य धर्मों के लिए भी ये सब अकल्पनीय था । 

किंतु इन्ही भारतीय मनीषियों एवं खोजियों ने ज्ञान योग जैसी चरम विज्ञान की खोज की जो सच स्वयं का पूर्ण दर्शन करा देती है । 


इन्हीं ऋषियों ने यह भी कहा कि किसी भी मार्ग को पूर्णतः ग़लत नहीं कहा जा सकता है , इस समाज में भिन्न भिन्न स्वभाव के लोग रहते हैं, उन्हें स्वयं के स्वभाव के अनुरूप ही साधना को चुनना होता है , और उसी साधना के द्वारा धीरे धीरे ज्ञान की दूसरी सीढ़ी पर चढ़ना होता है । उनका कहना था कि भक्ति स्वभाव का व्यक्ति कम से कम स्वयं को ढूँढने के लिए किसी स्थान की खोज तो कर रहा है , और लोग तो ऐसे हैं कि उन्हें जीवन के बारे में पता भी नहीं है । आख़िर खोजते खोजते एक दिन ऐसा आएगा जब उसे यह ज्ञान प्राप्त हो जाएग कि वो “मैं” स्वयं ही हूँ । मैं किसे खोज रहा हूँ । मैं किसी अन्य को खोज सकता हूँ , मैं स्वयं को कैसे खोजूँ , वो मैं स्वयं ही हूँ । मैं कहीं ग़ायब नहीं हूँ । मेरे ही द्वारा खोजा जा रहा है । इसलिए ही आत्मन वह तो प्राप्त ही है । 

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