आधुनिक सत्संग में परमात्मा से सम्बंधित उन चर्चाओं पर ध्यान दिया जाता है जिसमें मस्तिष्क के अंदर मात्र ऋंगार रस पैदा होता । यह रस इतना तीव्र और नशायुक्त होता है कि सत्संगी उसमें कुछ मिनटों तक डूब जाता है और कुछ समय तक के लिए जिस व्यवहार से वह परेशान रहता है उसको भूल सा जाता है । किंतु उसे इस रहस्य का ज्ञान बिलकुल भी नहीं होता है कि जिस स्वनिर्मित ऋंगार रस में वह डूब हुआ है वह भी एक बड़ा संसार ही है ।
वह शांति का एक अस्थायी श्रोत है जो किसी विशेष स्थान पर किसी ग्रूप या माहौल में प्राप्त हुआ । बहुत कम लोग ही हैं जो वहाँ से इस प्रकार की शांति को प्राप्त करके अपने व्यवहार को बेहतर करते हैं । 99 फ़ीसदी लोगों में ऐसा नहीं देखा जाता है । उनके व्यावहारिक चाल चलन में कोई अंतर नहीं दिखता है ।
उसका प्रमुख कारण है कि जितनी तीव्रता से इस ऋंगार रस में वह घुसता है उतनी ही तीव्रता से बाहर भी निकल आता है साथ साथ में अव्यवहारिकता का हैंगोवर लेकर आता है । भावना की तीव्रता के बाद मस्तिष्क होरमोंस का श्राव बहुत तेजी से अधिक मात्रा में छोड़ता है जिसको सामान्य होने में समय लगता है किंतु सामान्य होने के बाद हैंगोवर की तरह अनुभव होने लगता है ।
जैसे श्री रामकृष्ण परमहंस भक्ति के चरम में जाने पर मूर्क्षित हो जाया करते थे , वापस सामान्य अवस्था में आने के बाद बहुत मीठा और चटपटा भोजन का मन किया करता था ।
यदि मैं स्वयं अपना अनुभव व्यक्त करूँ तो बचपन में ध्यान से उठने के बाद बहुत तेज भूख लगती थी , सिर में भारीपन होने लगता था , अधिक बोलने का मन करता था इत्यादि ।
इन सभी समस्याओं का प्रमुख कारण ध्यान में अति उत्तेजित होना था , बहुत भावनापूर्ण होना था , ईश्वर को न प्राप्त करने में देरी लगना था , इत्यादि अनेको कारण थे जो मन में चलते थे ध्यान के समय । अति उत्तेजित होकर ध्यान में आनंद तो मिल जाता था पर ध्यान में उठने के बाद दिन भर सिर भारी रहता था ।
कुछ वैसे ही ये भक्ति भाव वाले साधक जब शृंगार रस पैदा करते हैं तब बहुत लीन होने की कोशिश करते हैं । मस्तिष्क से असामान्य रूप से होर्मोनल श्राव करवाते हैं जो बाद में समस्या पैदा करता है ।
इसीलिए भक्ति वाले लोग सत्संग से बाहर निकलते हुए ही दुष्प्रभाव से पीड़ित होने लगते हैं जैसे- अड़ोस पड़ोस के बुराई की चर्चाएँ शुरू हो जाती हैं । अत्यधिक बोलने लगना , पड़ोसन के यहाँ कल कौन आया और कौन नहीं आया था , पड़ोसी हमेशा देखता रहता है इत्यादि इत्यादि ।
यदि इसके पीछे का विज्ञान देखो तो आपको ज्ञात होगा कि जो भी शृंगार रस भगवान की भक्ति के रूप में पैदा हुआ था वह अब दूसरे फार्म में निकल रहा है । चूँकि मस्तिष्क के अंदर वे अति शृंगार hormones जो भी पैदा होते हैं वे कुछ विशेष स्वनिर्मित कल्पनाओं की संवेदनाओं के कारण होते हैं । इस प्रकार की संवेदनाओं से मन के अंदर व्यावहारिक स्थिरता का बोध नहीं हो पाता है । ये नशेड़ी बना देते हैं । मस्तिष्क को आदत हो जाती है , उसे उतना होरमोंस चाहिए और उसी प्रकार के स्वनिर्मित कल्पनाओं से ।
जैसे - मेरे पास एक स्टूडेंट आए - उनकी उम्र 65 वर्ष थी जो कि विवाहित थे । 55 वर्ष पहले एक अनजान लड़की को देखा था, उससे मुलाक़ात कभी हुई ही नहीं, बचपन में मात्र कुछ दिनों महीनो तक देखते थे । और वे अभी भी उसी चित्र की संवेदनाओं से खुद होने का प्रयत्न करते हैं , यहाँ तक कि पत्नी के साथ सेक्स में उसी लड़की के चित्र के साथ सेक्स करते हैं । वे उसी लड़की को मन में रख कर masturbate करके आनंदित होते हैं । यह एक रोग बन गया है उनका ।
इसीलिए प्रयत्न करें कि साधना में इसे स्वनिर्मित क्लेश समझें और इसे बचें । यह संसार व्यावहारिक रूप में सत्य है इसे माया समझने की भूल न करें । यह पारमार्थिक दृष्टि से माया है , ध्यान दें यह सांसारिक सत्य ही परमार्थ का ज्ञान करवाती है ।
मैं उन गृहस्थों के लिए अल्प काल के लिए इंद्रियों को ख़ुश करने के लिए भक्ति सत्संग को बहुत अच्छा मानता हूँ । उससे व्यवहार में जो छोटे मोटे दुःख होते हैं , उससे निजात मिल जाती है । किंतु साथ साथ ज्ञान योग , कर्म योग के महत्व को भी समझें जिससे मन को पूर्ण विश्राम मिल जाएगा । क्योंकि भक्ति सत्संग के बाद, घर के अंदर प्रवेश होते ही पारिवारिक कलह में अमृत रस ग़ायब हो जाते हैं ।
इसीलिए ‘कर्म योग’ कहता है कि व्यवहार को देख कर उससे समस्त रसों को निकालने का प्रयास करो । उसी के बाद ही पूर्ण अनासक्ति पैदा हो सकती है ।
स्वनिर्मित भावों से अल्प काल के लिए तो अनासक्ति पैदा हो सकती है किंतु उसमें परिपक्वता नहीं होती है ।
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