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भाग्यवादी होना रोग तो नहीं !

2 years ago By Yogi Anoop

भाग्यवादी होना रोग तो नहीं ! 

भाग्यवादी होने का क्या तात्पर्य है ? यही कि जीवन में सब कुछ पूर्व निर्धारित है । जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक घटनाओं पर स्वयं का नहीं बल्कि किसी अज्ञात सत्ता का नियंत्रण है । आपके द्वारा किए गए सभी कर्मों का फल कोई अन्य देता है । 

जब मन को किसी भी घटना का प्रत्यक्ष कारण ज्ञात नहीं होता है तब वह उसका मूल कारण किसी अज्ञात सत्ता पर डाल देता है । उसे लगता है कि कोई एक ऐसी सत्ता है जिसका ज्ञान इस सामान्य बुद्धि के पास नहीं है । इसीलिए मन-बुद्धि से परे वह एक ऐसी अज्ञात सत्ता को स्वीकार करने के लिए मजबूर हो जाता है । 

वह यह मान लेता हैं  कि सब कुछ निश्चित है, उसके द्वारा प्रत्येक कर्मों का फल किसी और हाथों में है, उसके स्वयं के हाथों में नहीं है । 

उनके जीवन में होने वाली समस्त घटनाएँ पूर्व निर्धारित है । कुछ वैसे ही जैसे सूर्य, ग्रह नक्षत्र इत्यादि के स्वाभाविक निश्चित है, जैसे वे अपरिवर्तनीय हैं वैसे ही ही उनके जीवन में जो भी घटनाएँ आने वाली है या आ चुकी हैं वे सब भी अपरिवर्तनीय थी । मैं भी इस सत्य की गहराई को स्वीकारता हूँ कि पुरुष और प्रकृति का मूल स्वभाव अपरिवर्तनीय है , मृत्यु निश्चित है किंतु भाग्यवादिता में यह सम्लित नहीं होता है ।


भाग्यवाद तो आपके कर्म पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देता है , यदि आपके जीवन में सब सुनिश्चित है तब आपके द्वारा कर्म का क्या महत्व । कर्मयोग वर्तमान का पक्षधर है , वर्तमान में किया गया कर्म आपको वर्तमान और भविष्य में परिणाम देता । यह आवश्यक नहीं कि किये गए कर्म का परिणाम इक्षानुसार ही प्राप्त हो । उस कर्म के परिणाम का अपना स्वभाव है । वह उसी के अनुसार परिणाम देगा । 

दुःख तब होता है जब परिणाम पूर्वनिर्धारित इक्षानुसार प्राप्त नहीं होता । सम्भवतः इसलिए व्यक्ति स्वयं को भाग्यवाद  की तरफ़ झोंक देता है । बजाय कि स्वयं के व्यवहार को ठीक करें जिससे उन्हें सबसे अधिक कष्ट होता है, वे स्वयं के द्वारा किए गए कर्म को नासमझी से करते हुए इन प्रपंचों में फँस कर रह जाता हैं ।

अंतरतम के विज्ञान को समझा जाय तो यही ज्ञात होता है कि भाग्यवाद निर्भरता सिखाता है । जब व्यक्ति को वर्तमान में इक्षानुसार संतुष्टि नहीं मिल पाती है तब तब वह कार्य कारण के नियमों को ताक पर रखकर किसी अज्ञात सत्ता पर निर्भर हो जाता है । उसे ऐसा भ्रमाभाष होता है कि कि इस प्रकार की सोच से वह संतुष्ट हो सकेगा । किंतु सत्य है कि इस प्रकार की सोच से अंतरतम में भय की वृद्धि और अधिक हो जाती है । 

इसी प्रकार के लोग भविष्य में निर्भरता महशूश करते हैं । इसीलिए इस प्रकार के लोग किसी न किसी ऐसे विज्ञान में फँस कर रह जाते हैं जिससे इन्हें और कष्ट होता है । यह सत्य है कि इस प्रकार के शशंकित और निर्भर व्यक्ति बहुत ही सेल्फ़ सेंटर्ड होते हैं , उनका ध्यान सिर्फ़ स्वयं की इक्षा को पूरी करने तक ही सीमित होता है, उन्हें दूसरों की सहायता करते हुए बहुत कम देखा जाता है । सम्भव है कि कुछ चलांक ऋषियों ने इस प्रकार के मनुष्यों के लिए ऐसे विज्ञान बनाए हों जिससे ज़रूरत मंद जीवों को थोड़ा लाभ मिल सके । 

जैसे हाथों की उँगलियों में अँगूठियों का ताना बाना बन लेना , अस्ट्रॉलॉजी में ग्रह और नक्षत्रों को एक दिशा में कर देना , किसी काली बिल्ली को खाना खिला देना , चींटियों को आटा की गोली खिला देना, ग़रीबों में खाना बँटवा देना , वास्तु के अनुसार घर में दरवाज़ों और खिड़कियों की उल्टा-पल्टी कर देना इत्यादि । 

कर्म के रहस्यों को जितना गहराई से समझने और अनुभव करने का प्रयत्न करेंगे उतना ही आत्मसंतोष और भयरहित अवस्था की प्राप्ति होगी । मन द्वन्दों से रहित होकर पारिवारिक जीवन में रहकर भी संतुष्ट रहेगा । संतुष्टमय जीवन अधिक महत्वपूर्ण है बजाय कि स्वयं को जीवन भर अंधे बन कर कर्म करवाते रहने के । कर्म तो  हो ही  रहा है बस उसके विज्ञान को समझ कर स्वयं की मानसिक द्वन्दों से परे करना है । 

यही निष्काम कर्म है । 

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