बुद्धि को धारदार बनाने का सबसे बड़ा और अच्छा साधन है तार्किक क्षमता को जागृत करना । उपनिषद काल में गुरु हमेशा अपने शिष्यों से बातचीत किया कारता था । प्रश्न और उत्तर जैसे साधनों का इस्तेमाल किया करता था । प्रश्नोत्तर का यह माध्यम शिष्यों में अधिक तार्किक क्षमता को जागृत किया करता था ।
मैं स्वयं अपने शिष्यों को सीधा साधा उत्तर देना पसंद नहीं करता हूँ । किंतु यदि गहराई से देखो तो एक सामान्य बुद्धि वाला शिशु अपने प्रश्नों का उत्तर हाँ व ना में ही प्राप्त करना पसंद करता है । उसे उत्तर पाने में बहुत शीघ्रता होती है । उसे उत्तर पाने में इतनी जल्दी होती है कि गुरु से ही शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त कर लेना चाहता है । वह स्वयं में प्रयत्न नहीं करना चाहता । इसका अर्थ है कि उसने अपने अंतरतम में यह मन बैठा है कि उसे अपने प्रयत्न से उत्तर न मिल सकेगा ।
इसीलिए मैं ऐसे शिष्यों को सीधा सीधा उत्तर नहीं देता हूँ । मैं शिष्यों के द्वारा किए गये प्रश्नों को और उलझाने का प्रयत्न करता हूँ । मैं चाहता हूँ कि पहले वह यह समझे कि यह प्रश्न वास्तव में क्या उपयुक्त है भी कि नहीं । ज़्यादातर प्रश बड़े ही निरर्थक होते हैं । शिष्यों द्वारा किए गए लगभग 90 फ़ीसदी प्रश्न निरर्थक होते पाया है मैंने । इसीलिए मैं उसके प्रश्नों के माध्यम से उसे और उलझाने का प्रयत्न करता हूँ ।
एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है - जैसे कई शिष्यों का प्रश्न होता है कि मैं ईश्वर से मिलकर यह जानना चाहता हूँ कि आप दुख क्यों देते हो ? ईश्वर ने हमें क्यों पैदा किया है ? मरने के बाद ईश्वर हमें कहाँ रखता है ? इत्यादि कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर हो ही नहीं सकता है ।
शिष्य ऐसे प्रश्नों के उत्तर हाँ और ना में ही चाहता है । मैं यह भी जानता हूँ कि मेरे पहले पता नहीं कितने अन्य गुरुओं से वह इस प्रकार के पूँछ चुका हुआ होगा । और मुझसे भी यही पूँछ रहा है । मैं यह भी जानता हूँ कि मेरे द्वारा उत्तर से वह सदा के लिए संतुष्ट होने वाला नहीं है । क्योंकि पूर्व में बहुत गुरुओं से काल्पनिक उत्तर प्राप्त संतुष्ट नहीं हुआ है ।
मैं ऐसा मानता हूँ कि ऐसे प्रश्नकर्ताओं के प्रश्न के उत्तर देने के बजाय उस प्रश्न पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देना चाहिए । ऐसे लोगों के लिए प्रश्न का उत्तर प्रश्न ही होना चाहिए ।
जैसे मैं अपने शिष्यों और यहाँ तक कि अपने बच्चों से भी इसी तकनीक का इस्तेमाल करता हूँ । उनके द्वारा किये गये प्रश्नों का उत्तर सीधा सीधा दिये बग़ैर उनके द्वारा किए गाये प्रश्न पर प्रश्न कर बैठता हूँ ।
इसके बाद उनमें भिन्न भी प्रकार से उत्तर देने की कोशिशें होने लगती हैं । थोड़ा झल्लाने के बावजूद भी वे कई उत्तर देते हैं जिनमें मैं फिर से प्रश करता हूँ ।
एक आध्यात्मिक दूरदर्शी गुरु को यह देखना होता है उसके शिष्यों को सीधा सीधा बर्गर जैसे उत्तर ना दिये जायें । ऐसा उत्तर दो कि उसे उस प्रश्न के उत्तर को पाने के लिए घंटों घंटों चिंतन करना पड़े ।उसे थोड़ा कनफ़्यूज़ कर देना चाहिए जिससे उसके अंदर तार्किक सकती का विकास हो सके ।
यदि बिना उसके स्वयं के प्रयत्न के यदि उतर दिये जाएँगे तो उसकी बुद्धि का हाज़मा ख़राब हो जाएगा । यदि वह वह प्रयत्न करके स्वयं ही प्राप्त करेगा तो उसके बुद्धि का ज्ञानात्मक हाज़मा ठीक होगा और भविष्य में वह अनुभवी और ज्ञानवान भी हो सकेगा । अन्यथा जीवन भर सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रश्न ही पूछने वाला व्यक्ति बन कर रह जाएगा ।
Copyright - by Yogi Anoop Academy