तिब्बत में एक कहावत है कि युवक (अनुभवहीन) मानते हैं कि बूढ़े मूर्ख हैं किंतु बूढ़े (अनुभवयुक्त) जानते हैं कि युवक मूर्ख होते हैं । यह सत्य है कि युवक के पास सोचने की स्वतंत्रता होती है, वह किसी के बारे में अवधारणा बनाने में स्वयं को पूरी तरह स्वतंत्र समझता हैं ।
इसी को अपना अधिकार समझता हैं । किंतु बूढ़ों के पास सोचने की स्वतंत्रता ख़त्म हो चुकी हुई होती है, वह चाह करके भी किसी के बारे में अवधारणा नहीं बना सकता, यूँ कहिए कही बनाता नहीं क्योंकि उसे सत्य का अनुभव हो चुका है । बूढ़े (अनुभवी) अवधारणाएँ नहीं बनाते हैं वे जानते हैं कि क़िस्में कितना सत्य है ।
इसीलिए वह बिना मतलब के कुछ भी सोचे ऐसा नहीं हो सकता है । यहाँ पर बूढ़े होने का अर्थ अनुभव से है , वह उम्र के पड़ाव से गुजरकर बहुत सारी उन चीजों का अनुभव कर चुका है जो एक युवा नहीं कर सकता है । युवा के पास अनुभव नहीं है इसीलिए वह किसी के भी बारे में अवधारणा बनाता रहता है ।
अनुभव का मूल अर्थ है जो घट चुका है उसे जाना जान लिया गया है, इस जीवन में सब कुछ परिवर्तनशील है , उस परिवर्तनशीलता में हम स्वयं को स्थिर नहीं कर पाते हैं । बूढ़े व्यक्ति उस परिवर्तन से गुज़र चुके हुए होते हैं, उन्हें उसका अनुभव हो चुका हुआ होता है ।इसीलिए वे सब जानबूझकर प्रतिक्रिया नहीं करते ।
जैसे बूढ़ी स्त्रियाँ नई नवेली बहुओं के साथ अक्सर मज़ाक़ करती हुई पायी जाती हैं । विशेष करके बहुओं के सुबह कमरे से बाहर निकलने के बाद मुस्कुराकर मज़े लेती हैं । उनकी दंतविहीन मुस्कराहट से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वे जानती हैं कि रात में क्या क्या हुआ है ।
मानने वाले हमेशा से अधकचरे रहे हैं, उनमें जितनी अधिक मानने का संकल्प बढ़ता जाता है उतना ही हिंसकता बढ़ती जाती है । मानने की ज़िद्द इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उन्हें लगता है कि यही एकमात्र सत्य है । उनकी सारी की सारी शक्तियाँ मानने में लग चुकी हुई होती हैं सम्भवतः इसीलिए व्यवहार में जीने के लिए शक्ति ही नहीं बच पाती है , वे व्यवहार में जीवन को जी नहीं पाते हैं । उनका व्यावहारिक पक्ष खोखला हो जाता है ।
उन्हें उस मानने को सिद्ध करने के लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है, एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देना पड़ता है , लोगों के साथ जबरजसती करनी पड़ती है । यदि उनके द्वारा माने हुए बातों को कोई नहीं स्वीकारता तो हिंसक हो उठते हैं । जैसे किसी विशेष धर्म का व्यक्ति यह कहता है मेरे माने हुए ईश्वर व अल्ला को मान लो अन्यथा मृत्यु के घाट उतार देंगे । सत्य यह है कि उन्होंने पूरे जीवन में मानना और मनवाना ही सीखा है । इसीलिए उग्रता और आतंकवाद आ गया ।
ऐसे कमजोर मस्तिष्क वालों को इतनी सी बात समझ नहीं आती कि यदि उसके माने हुए ईश्वर व अल्ला की सत्ता हर एक जगह मौजूद है तो कोई माने या न माने क्या फ़र्क़ पड़ता है, किंतु नहीं, उस कमजोर दिमाग़ वाले को मानने और मनवाने की मानसिक बीमारी लग जाती है । बात उम्र की नहीं है बात है मानने और मनवाने की है । उनमें अनुभव नहीं अन्यथा उनके द्वारा हिंसा न होती ।
किंतु ध्यान दें यदि अनुभव किया होता तो ठहराव आ जाता । कोई माने या ना माने आप तो उसे जानते ही है । इसीलिए जितना अनुभव की गहराई बढ़ती जाती है उतना ही स्वीकारोक्ति और अहिंसा बढ़ती जाती है ।
जहां तक बूढ़ों का प्रश्न है , बूढ़े से तात्पर्य अनुभव से है, ज्ञान अनुभव से , ज्ञानियों से हिंसा नहीं हो सकती है क्योंकि वे मन की हिंसात्मक प्रक्रिया से गुजर चुके हैं , वे थक चुके हैं , वे जान चुके हैं कि यह निरर्थक है । यहाँ तक कि एक ही परिवार में विभिन्न विचारधाराओं के होने के बावजूद भी ऐसे लोग प्रेम से रहते हैं । युद्ध नहीं, हिंसा नहीं । यह अनुभव ही है जो उनके मन मस्तिष्क को स्थिर करता है ।
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