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अंतःवार्तालाप की अति का रोगों से सम्बन्ध

3 years ago By Yogi Anoop

अंतःवार्तालाप की अति का रोगों से सम्बन्ध (internal Conversation) 


   दो तरह का वार्तालाप होता है , एक किसी बाहर वाले व्यक्ति के साथ और दूसरा स्वयं के अंदर स्वकल्पित व्यक्ति के साथ । बाहर वाले व्यक्ति के साथ वार्तालाप में मुँह जबड़ें, जीभ, आँखे और हाथों का उपयोग सम्लित होता है । सामान्यतः इस वार्तालाप में जबड़े, मुँह और जीभ का उपयोग होता है किंतु तनावपूर्ण वार्तालाप में इन सभी अंगों का दुरुपयोग अधिक होने लगता है जिससे उन सभी अंगों में थकान के साथ साथ उससे सम्बंधित भविष्य में कई रोगों के आने की सम्भावनाओं को खोल देता है ।  यह तक कि इस प्रकार के अधिक बोलतू लोगों पर समाज में विश्वास की भी कमी भी देखी जाती है । 


     दूसरे तरह के अंतरतम वार्तालाप में जो स्वनिर्मित कल्पनाओं से ही की जाती है, उसी प्रकार के सभी अंगों में तनाव आते हैं, जो बाहर के वार्तालाप में होता है ।  जहां तक मेरा अनुभव है, अंतः वार्तालाप मन,मस्तिष्क, शरीर एवं समाज के लिए अधिक ख़तरनाक है बजाय कि बाहर वाले के । 

क्योंकि अंतः वार्तालाप में मन पर बहुत अधिक बोझ आता है,  उसे अपने मन में प्रश्न करने वाले को भी बनाना होता है और उसके मुँह से प्रश्न करवाना भी होता है साथ साथ उन सभी प्रश्नों के उत्तर को स्वयं देना भी होता है । इन सभी जिम्मदारियों का बोझ मन के ऊपर आ रहा होता है और उससे जबड़े, मुँह जीभ और आँखों में आंतरिक रूप से तनाव अधिक बढ़ जाता है । रात में सोते समय जबड़ों में खींचने की आदत भी इसी के कारण होता है , कान में आवाज़ों का निरंतर सुनाई देते रहने का भी मूल कारण भी  यही होता है । वह अपने मन में इतना रायता फैला चुका हुआ होता है कि उसे यह पता भी नहीं होता है कि उसने ही यह सब फैलाया हुआ है । 


     यहाँ तक कि स्वप्न में भी वार्तालाप ही चलता है जिससे गले में भी उसका दुष्प्रभाव पड़ता । मैंने प्रयोग के दौरान यह पाया कि स्त्रियों में अंतःवार्तालाप के अधिक होने से उनके गले में अधिक तनाव आता है जिससे इनके थाइरॉड ग्रंथि के प्रभावित होने की सम्भावनाएँ अधिक से अधिक देखी गयी हैं । 


      यहाँ तक कि धार्मिक व्यक्तियों में भी इस प्रकार के अंतःकरण के वार्तालाप की आदतें अधिक से अधिक देखी जाती हैं । वे स्वयं के मन के अंदर स्वरचित देवी देवताओं से वार्तालाप करते हुए दिखते हैं और साथ साथ उन्हें शक्तिशाली की पदवी देते हुए स्वयं को निरीह बना देते है । कुछ वर्षों के बाद उनमें नसों की बीमारियाँ सबसे अधिक देखी  जाती है । उनके अंदर सिर में चक्कर के बढ़ने का भी कारण लगभग यही होता है । 


      यहाँ  तक अवसादग्रस्त ,डिप्रेशन व ऐंज़ाइयटी प्रकृति के स्वभाव वाले व्यक्तियों में भी अंतः वार्तालाप अधिक प्रभावी होता है । इस स्वभाव के लोगों में स्वनिर्मित कल्पनाओं को अधिक शक्तिशाली बनाकर उससे स्वयं को दबाने की क्रिया की जाती है । मन स्वयं की कलापनाओं से स्वयं को दबाने की आदत बना लेता है । इस प्रकार के स्केल व्यक्तियों में समय के अनुसार चलने की आदत समाप्त हो जाती है । ऐसे समूहों में व धार्मिक समूहों में कट्टरता भी देखने को मिलती है , ऐसा इसलिए है क्योंकि अंतरण में किसी भी किताब को इतना अंदर बिठा दिया गया है कि वे स्वयं को कुछ न समझते हुए उस पुस्तक को ही सर्व सर्वे सर्वा मान लेता है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण मुस्लिम धर्म है । 


      ध्यान दें अंतःवार्तालाप में मन स्वनिर्मित वार्तालाप वाले व्यक्ति को जितना शक्तिशाली बनाता जाता है उतना ही उसके स्वयं का व्यक्तित्व कमजोर व खोखला होता जाता है । 


        जब उस स्वनिर्मित तत्व पर किसी बाहरी व्यक्तियों के द्वारा चोट मारी जाती है तब या तो वह अवसाद व डिप्रेशन में चला जाता है या वह हिंसक हो उठता है । और हिंसकता इतनी अधिक हो जाती है कि वह दूसरों को परेशान करने लगता है । उसके अजीबोग़रीब व्यवहार से समाज भी त्रस्त हो जाता है । इसीलिए भारतीय आध्यात्मिक ऋषियों ने अंतःवार्तालाप को बंद करने के अभ्यास पर ज़ोर दिया । ऋषि कहता है कि जब तक अंतर्मौन नहीं होगा , जब तक अंदर का वार्तालाप बैंड नहीं होगा तब तक न तो इस देह और मन की समस्या  का समाधान होगा और न ही इस समाज की समस्या का । 


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