विज्ञान अनंत की ओर जाने में प्रयत्नशील है , वह जितना अधिक उस तरफ़ जा रहा है उतना ही अधिक मनुष्यों को सहूलियतें मिलती जा रही है । यहाँ पर विचारपूर्वक देखा जाय तो पाँचों तत्वों में आसमान तत्व का सबसे अधिक विस्तार है । वह अनंत है । उसमें सीमा है ही नहीं । अन्य सभी तत्वों में अपनी सीमाएँ हैं , जैसे ठोस तत्व । उसमें आकार है रंग है । वह दृश्य है । उसे देखा जा सकता है । जल तत्व है उसमें भी आकार है । सुखम विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि इस वातावरण में जल है पर वह भी तो दिखता नहीं । वह अपने रासायनिक रूप में आँखों से दिखता तो नहीं है । किंतु उससे अधिक सूक्ष्म रूप से विचार किया अजय तो ये सभी दृश्य ही हैं । कहीं ना कहीं विज्ञान के द्वारा सिद्ध है । और वह आँखों से नहीं बल्कि किसी ना किसी तकनीकी के द्वारा देखे जाते ही हैं ।
कहने का मूल अर्थ है कि आसमान तत्व के अतिरिक्त सभी तत्व कहीं ना कहीं अपने आप में आकर लिये हुए हैं, और वे सभी दृश्यमय हैं इसीलिए उनका अपना सीमित दायरा है । रूप रंग और आकार लिये हुए हैं । उन्हें अनंत नहीं कहा जा सकता है ।
यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य बातें हैं कि विज्ञान इन चारों तत्वों में स्वयं को बांधना नहीं चाहता है । क्योंकि ये सभी सीमित हैं । इनका एक दायरा है । इनकी एक बाउंड्री है । ये अनंत नहीं हैं । व्यक्ति जब तक अनंत में नहीं जाएगा तब उसे पूर्ण चैन नहीं है ।इसीलिए विज्ञान भी अनंत की तरफ़ जाना चाहता है । किंतु वह वस्तुगत है ।
इसीलिए विज्ञान आसमान की उड़ान करने लगा । वह स्पेस में सबसे अधिक खोजे कर सकता है । किंतु ध्यान रहे अध्यात्म उससे कहीं अधिक है । आध्यात्मिक आसमान व अनंत की यात्रा नहीं करता है । क्योंकि अनंत में यात्रा संभव ही नहीं । यात्रा का तो अर्थ ही है दूरी । तो वह भला कैसे अनंत हो सकता है ।
अध्यात्म में यात्रा नहीं होती है । यहाँ पर ज्ञान होता है । अध्यात्म में तो अंदर निरंतर उत्पन्न दृश्यों को है समाप्त कर दिया जाता है । मन जब तक दृश्यों का निर्माण करता रहता है तब तक वह सीमाओं में बंधा है । क्योंकि उस समय दृश्यों की अपनी एक सीमाएँ होती हैं । जो व्यक्ति दृश्यों को जितना अधिक बनाता है वह उतना ही उन दृश्यों से चिपका रहता है , उन्हीं दृश्यों में उलझा रहता है , और वह उतना ही सीमित दृष्टिकोण भी रखता है । और वह उतना ही सीमित है । और मैं बता दूँ सबसे बड़ा रोग सीमित दृष्टिकोण का होना है ।
उस धार्मिक संगठन या कोई भी मज़हबी संगठन को उठा लो जिसमें सबसे अधिक सीमित दृष्टिकोण है वहाँ पर सबसे अधिक मानसिक रोगी देखने को मिलेंगे । यहाँ तक कि वे अपने स्वयं की आत्मा या परमात्मा को निराकार कहते हैं किंतु मैं यह सिद्ध कर दूँगा कि ऐसे लोगो अपने भगवान की क्षवि को अंतरतम में कहीं ना कहीं आकार के रूप में ही रखते हैं ।
इस प्रकार के सिद्धांत तो व्यक्ति को और ही रोगी बनाता है । इसीलिए ये कहते हुए यह सुना होगा कि धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को परमात्मा सबसे अधिक कष्ट देता है । मैं कहता हूँ कि कष्ट परमात्मा नहीं देता है , कष्ट तो आपने अपने अंदर जो दृश्यों के अनावश्यक निर्माण में लगा रखा है , दुख उससे आ रहा है । दुख अपने ही बनाए हुए दृश्यों व विचारों से आ रहा है ।
मैं यह भी बता दूँ ये कोई कहानी नहीं मेरा आध्यात्मिक अनुभव है ।
आध्यात्मिक साधना में मैं इन्हीं अस्त दृश्यों को समाप्त करने की बात करता हूँ । जो प्रत्येक पल बना रहे होते हो । अनर्थक, अनर्गल , असमय ही दृश्यों और विचारों को पैदा करते रहते हो जिसका कोई अर्थ नहीं है । और जब तक ये दृश्यों को बनाते रहोगे तब तक सीमित दायरे में ही मन रहेगा । और जब मन दृश्यों को बनाना बंद कर देता है तो वह अनंत को प्राप्त कर लेता है । यूँ कहो कि अनंत का अनुभव कर लेता है । क्योंकि प्राप्त शब्द को सुनते ही आपके दिमाग़ में लेंन-देंन की कल्पना शुरू हो जाती है ।
जब यह तक दृश्य है तब तक मन है और जब दृश्य ही ना रहेगा तब मन विलीन हो चुका हुआ होगा और जब मन विलीन हो चुका होगा तब उसी अवस्था को अनंत की अवस्था कहते हैं ।
यही पूर्ण स्वास्थ्य का परिचायक है , यही पूर्ण निरोगी अवस्था है । यही पूर्ण मुक्त अवस्था है । यह वाह्य आसमान नहीं है । यह अपरिमेय है , अकल्पित है । यही संपूर्ण अवस्था है । इसी को मैं मोक्ष अवस्था भी कहता हूँ ।
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