मस्तिष्क में सबसे अधिक तत्व कौन सा है ? यदि देखा जाय तो सबसे अधिक वैचारिक तत्व मौजूद होता है । विचार एक ऐसा तत्व है जो पाँचो इंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषयों के अंदर आने के पैदा होता है ।
कुछ ही वर्षों में विचारों की संख्या व्यक्ति के अंदर इतनी अधिक होती है कि उसे लगता है कि कहीं इन असंख्य विचारों से मस्तिष्क फट न जाय । एक उम्र की सीमा के बाद इनमें नकारात्मक विचारों की संख्या अधिक देखी जाती है । ऐसा नहीं कि सकारात्मक विचार मस्तिष्क को थकाते नहीं है । वे भी थकाते हैं किंतु थोड़ी देर के बाद ।
जैसे यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन सिर्फ़ अच्छे ही अच्छे स्वप्न देखता हो तो उसकी नींद पूरी नहीं हो सकती , सुबह उठने पर थका हुआ महसूस करेगा । वह इसलिए कि मस्तिष्क का कार्य रात में चल रहा था ।
एक सामान्य मन वाला व्यक्ति नकारात्मक और सकारात्मकता के बीच हमेशा उलझा रहता है । या तो किसी के प्रशंसा में व्यस्त होता है अथवा बुराई में । जितनी कहानियाँ भी बतायी जाती हैं उनमें भी इन्हीं दोनों तत्वों की मौजूदगी होती है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि मस्तिष्क जब घटनाओं के सकारात्मकता और नकारात्मकता में ही उलझता है तब उसे ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है । क्योंकि इन्हीं द्वन्दों में रहकर वह निर्णय लेता है और संसार को इसी चस्में से देखता है ।
ज्ञान उसे तब प्राप्त होता है जब इन दोनों व इन दोनों से होने वाली प्रतिक्रियाओं से वह स्वयं को अलग कर लेता है ।
जैसे-
अंधकार अर्थात् निद्रा को कुछ लोग घोर तामसिकता कहते हैं , कुछ आलस्य का नाम देते हैं, कुछ लोग इसे अज्ञानता कहते हैं तो कुछ शांति का असीम श्रोत बताते हैं । सत्य यह कि इसी अंधकार व निद्रा में तामसिकता भी है और सात्विकता भी है । किंतु सामान्य व्यक्ति इससे ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाता है । बस अच्छे और बुरे में ही फँसे रहते हैं ।
हज़ारों वर्ष पहले ऋषियों ने इसी निद्रा से ध्यान और समाधि की खोज की । उन्हें निर्विचार अवस्था का अनुमान केवल और केवल नींद से ही लगा होगा । क्योंकि नींद ही एक ऐसा अनुभव है जिससे उठने के बाद शांति का अनुभव होता है ।
इसी निद्रा को जागृत अवस्था में लाने के लिए उन्होंने क्या क्या नहीं किया । उनके द्वारा नींद एक सहायक बना ध्यान और समाधि तक पहुँचने का । यह एक खोज थी । जब साधक खोज करता है तब तामसिकता, राजसिकता और सात्विकता में नहीं उलझता है । उसके सामने जो भी घटनाएँ आती हैं वह उस पर कार्य करने लगता है। वही कर्म उसे सत रज और तम से परे कर देती है ।
ध्यान दें यह अंतर्मन चाहता है कि कुछ समय के लिए उसके अंदर से सब कुछ हट जाए , सब कुछ शून्य हो जाए । नींद इसी बात का संकेत देती है । नींद बताती है कि अंतर्मन विचारों के दल दल से परे जाना चाहता है । किंतु समस्या है कि कुछ ही वर्षों में एक सामान्य आदमी उस वैचारिक दल दल में रहने का आदी व लती हो जाता है । एक सामान्य व्यक्ति नींद को जागृत अवस्था में पाने की कोशिश नहीं करता है । वह तो बस किसी न किसी तरह , भले दवा से ही , नींद लाना चाहता है । गहरी नींद आयी तो ख़ुश बुरी नींद आयी तो दुःख । बस इसी में फँसा है । वह उस नींद के अंदर जाकर उस गहराई को जानने का कभी प्रयास नहीं करता । यह कार्य कुछ विरले गुरु ही करते हैं ।
रात को अंधेरा अनुभव करने का प्रयत्न करो ।कोशिश यह होनी चाहिए कि जागृत रहकर कैसे उस निर्विचार अवस्था का अनुभव कैसे करें ।
संसार में वस्तु है किंतु अंधेरा यह बताता है कि इसे भुला दो , दिमाग़ से हटा दो ।
वस्तु व संसार को समाप्त नहीं किया सकता है । अपना मुख ,अपनी इंद्रियाँ बंद कर लो, वस्तु रहते हुए भी आपके लिए महत्वहीन हो जाए । आपके लिए सब कुछ शून्य हो जाएगा ।
संसार दोषी नहीं है, संसार में आकर्षण नहीं है , आकर्षण का केंद्र व्यक्ति में हैं, आकर्षण उसी में होता है जो ज्ञानी है , जिनमे समझ है । संसार में समझ नहीं है तो उनमें आकर्षण भला कहाँ से आएगा । उसमें शक्ति अवश्य है । सूर्य में शक्ति है पर ज्ञान नहीं । ज्ञान तुममें है ।
अंधकार प्रकृति का स्वभाव मात्र है , व्यक्ति उससे इसलिए आकर्षित होता है क्योंकि उसे शून्यता चाहिए । वह शून्यता उसकी आध्यात्मिक और मानसिक भूख है , यदि उस भूख को शांत न किया गया तो उसका परिणाम शरीर में भयंकर रोगों के रूप में दिखता है ।
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