ऐसा कहते हुए बहुत गुरुओं को सुना होगा कि प्रत्येक साँसों को छोड़ते समय ऐसा सोचो कि ये अंतिम साँस है । मुझे ज्ञात नहीं कि इसके कहने के पीछे का विज्ञान क्या है किंतु ऐसा कहा जा सकता है इसके पीछे पूर्ण वर्तमान में जीने की सोच होती होगी । किंतु मेरे अनुभव में यह तरीक़ा ठीक नहीं है । इस प्रकार के तरीक़ों से प्राणायाम की मूल गहराई में नहीं ज़ाया जा सकता है । यहाँ तक कि किसी भी रोगों पर नियंत्रण भी नहीं पाया जा सकता है ।
यदि इसके पीछे वर्तमान में जीने की बात है तो वह ग़लत है , क्योंकि वर्तमान में जीने के लिए सोचा नहीं जाता है । वर्तमान में पूर्णता से जी रहा हुआ व्यक्ति सोच नहीं सकता है । जब तक वह वर्तमान में जी रहा होता है तब तक उसकी सोचने एवं काल्पनिक प्रक्रिया स्वतः ही विराम लगा हुआ होता है । यहाँ तक कि अन्य इंद्रियाँ भी अल्पकाल के लिये स्वयं को रोक देती हैं ।
जैसे एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है -
स्वादिष्ट भोजन करते समय कुछ कुछ पल ऐसे आते हैं जिसमें कान बंद हो जाते हैं । अर्थात् दूसरों द्वारा की गई बातों के कुछ अंश सुनाई नहीं दे पाता है । वह इसलिए कि भोजन के स्वाद में तल्लनीता के समय मन, कान से आयी हुई आवाज़ पर पल भर के लिए ध्यान नहीं दे पाता है क्योंकि वह स्वाद में व्यस्त है ।
और साथ साथ भोजन के स्वाद की लिप्तता के समय पूर्ण अनुभव की अवस्था होती है जिसमें मन की काल्पनिक क्रिया का अभाव हो जाता है । मन के द्वारा स्वाद के पूर्ण अनुभव में व्यस्तता के कारण उसके पंख (रूप रंग आकार बनाने की प्रवृत्ति) अल्पकाल के लिए आराम की अवस्था में चले जाते हैं ।
मन के पंख है रूप रंग और आकार । मन की उड़ान इन्ही तीनों पर निर्भर करती है । यदि मन के पास से इन तीनों को हटा दिया जाये तो मन का उड़ना पूर्ण रूप से बंद हो जायेगा ।
किंतु मन जब इन तीनों के साथ अज्ञानतावश खेलने लगता है तब वह स्वयं के ही मकड़ जाल में फँस जाता है । वह काल्पनिक उड़ान के साथ वर्तमान में जीना चाहता है जब कि यह संभव है नहीं । सत्य यह है कि पूर्ण रूप से वर्तमान में जीते समय काल्पनिक क्रियाएँ बंद हो जाती हैं । किंतु मन को लगता है कि काल्पनिक उड़ान से आत्मसंतुष्टि जल्द से जल्द मिल जाएगी संभवतः इसीलिए साँसों को बाहर करते समय अतार्किक बातों को सोचवाने का प्रयास किया जाता है ।
ध्यान दें प्राणायाम का अर्थ सिर्फ़ साँसों को भरना, निकालना और रोकना मात्र नहीं । यह विज्ञान तंत्र है जिसके माध्यम से मन की गहराई को छूने का सफल प्रयास किया जाता है ।
ज्ञान योग में इन्ही सब रहस्यों को समझाने का प्रयास करवाया जाता है जिससे वह प्राणायाम के माध्यम से स्वयं के चित्त को शांत व स्थिर करता हा और साथ साथ स्वयं को निरोगी भी बनाता है ।
मेरे स्वयं के अनुभव में मन को शांत और स्थिर करने के दो ही मार्ग हैं ।- एक तो उसे वस्तु अनुभव में संलग्न करवाया जाए ,और दूसरा स्वयं के अनुभव में संलग्न करवाया जाये ।
जैसे भोजन करते समय भोजन के स्वाद के अनुभव में लीन होने से मन की वैचारिक एवं काल्पनिक उड़ान उस समय के लिये रुक जाती है । उसी प्रकार साधक जब स्वयं का अनुभव करने लगता है तब वैचारिक और काल्पनिक उड़ान बंद हो जाती है ।
साँसों को बाहर निकालते समय साधक बजाय कि कुछ सोचने के , उसे स्वयं के साँसों के अनुभव पर ध्यान देना चाहिए । यह ध्यान देना चाहिए कि साँसों के निकलने की गति कैसी है , उसके निकलते समय शरीर के अन्य इंद्रियों और अंगों पर प्रभाव कैसा पड़ता है । साँसों के निकलते समय मन और इंद्रियों में कैसा अनुभव होता है । साँसों को कितना निकालने पर मन संतुष्ट होता है । जब साँसों को अनुभव करते हैं तब उपर्युक्त सभी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । और यदि साधक या रोगी अपनी साँसों को इस प्रकार का अनुभव करने के बजाय वह किसी कल्पनात्मक सोच के द्वारा अनुभव करने का प्रयास कर रहा होता है तो इसका अर्थ है कि वह प्राणायाम का अभ्यास नहीं कर रहा है । वह मन के द्वारा कल्पनाओं से सूखानुभव प्राप्त करना चाहता है ।
यदि साधक साँसों को बाहर निकालते समय, उसके अंतिम साँस के बारे में अनुभव करने का प्रयास करेगा तो इसका अर्थ है बनावटी अनुभव करने का प्रयास कर रहा है । साँसों के बाहर निकलने से शरीर और इंद्रियों में जो घटित हो रहा है उसका अनुभव होना चाहिये ताकि मन शून्यवस्था में चला जाय ।
ध्यान दें यह जब शरीर टॉक्सिंस को प्राकृतिक तरीक़े से बाहर निकाल रहा होता है तब बहुत ही आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है । वह प्रसन्नता सिर्फ़ आत्मा को ही नहीं बल्कि समस्त अंगों को भी मिलती है । इसीलिए मैं हमेशा अपने शिष्यों को प्राणायाम के माध्यम से उस प्राकृतिक तरीक़े को अनुभव करवाने का प्रयास करता हूँ ।
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