अष्टांग योग का प्रारम्भ यम से होता है जिसका अर्थ है आत्म संयम । यम को मृत्यु के अर्थ में भी लिया जाता है । जैसे यमराज अर्थात् मृत्यु के राजा । इसे यूँ भी कहा जा सकता है “मृत्यु पर नियंत्रण” जो मर रहा है व जिसमें निरंतर परिवर्तनशीलता है उस पर संयम । मन और इंद्रियाँ में निरंतर परिवर्तन हो रहा है । इसीलिए भारतीय ऋषियों ने इंद्रियों के संयम को ‘यम’ कहा ।
ध्यान दें अष्टांग योग में महर्षि पतंजलि ने आत्म संयम के लिए पाँच सूत्रों का उपयोग किया जिससे वह रोगी न बने । ऋषि को इस बात का पूरा एहसास हो गया था कि मन जितना जाल बुनेगा वह जंजाल में फँसता जाएगा और साथ साथ मन जितना उस बने हुए जाल को खोलेगा उतना ही स्वयं को शून्य कर देगा देगा । अर्थात् मन उन 5 सूत्रों के सहयोग से जिसे यम कहते हैं स्वयं के आस पास के जाल को समाप्त कर देता है , स्वयं के चित्त को स्थिर कर देता है । यहाँ पर स्थिरता का अर्थ है रुक जाना, यह अवस्था तभी प्राप्त होती है जब आत्म संयम होता है ।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य, और अपरिग्रह ये पॉंच यम है जो मनोआधिपत्य को समाप्त करने में सहयोग करते हैं । इसमें सिर्फ़ अहिंसा पर ही चर्चा करेंगे ।
अहिंसा : मन निरंतर अति प्रतिक्रियाशील है, बजाय कि वह स्वयं को शांत करे, वह स्वयं से ही लड़ता है । कुछ वर्षों के बाद इस युद्ध की प्रक्रिया इतनी अधिक हो जाती है कि अंतरतम हिंसक हो उठता है । एक सामान्य व्यक्ति अंतर्मन के युद्ध से बचने के लिए वाह्य संसार में किसी न किसी को लड़ने के लिए ढूँढता है । इससे प्रक्रिया से उसका मन कहीं न कहीं बाहर व्यस्त रहता है ।
व्यस्तता के लिए उसे कोई न कोई लड़ने के लिए चाहिए क्योंकि अंतरतम में युद्ध का अभ्यस्त हो चुका है । इस प्रकार के हिंसक विचारों के अभ्यस्त स्वभाव के व्यक्ति स्वयं के शरीर और मन लिए ख़तरा हो जाते हैं साथ साथ दूसरों के लिए भी ख़तरा हो जाते हैं ।
एक उदाहरण से समझा जा सकता है-
श्री कृष्ण के परिवार के कई लोग अपने जीवन के अधिकांश भाग युद्ध में रत थे, महाभारत जैसे अंतिम युद्ध के बाद परिवार के सभी लोगों के पास अन्य युद्ध के लिए कोई कार्य न था , उन्हें द्वारका में ही रहने को बोल दिया गया । कुछ वर्षों की शांति के बाद वे आपस में ही लड़ने लगे । अंततः वे आपस में ही युद्ध करके समाप्त हो गए । जो व्यक्ति जीवन भर युद्ध में ही अभ्यस्त रहा हो वो भला कैसे युद्ध को छिड़काव शांत बैठेगा , उसका तन-मन , मस्तिष्क की एक एक कोशिकाएँ सिर्फ़ युद्ध में अभ्यस्त रह चुकी हैं, जब उनके पास कोई युद्ध ही नहीं तो वो आख़िर क्या करेगा । स्वयं में ही युद्ध शुरू कर देगा । क्योंकि उसे युद्ध के सिवाय कुछ अन्य आता ही नहीं । हिंसक मन समाज के साथ सबसे अधिक स्वयं के लिए घातक है । हिंसा का अभ्यास स्वयं के साथ साथ समाज को भी ले डूबता है ।
यह अखंड सत्य है कि हिंसा की प्रतिक्रिया हिंसा से नहीं हो सकती है । हिंसा की सबसे अच्छी प्रतिक्रिया अहिंसा ही हो सकती है । इसका प्रमाण समाज में कई वर्गों में भी देखने को मिलता है ।
जैसे महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत ,जापान, जर्मनी और आज के युग में कश्मीरी पंडित इत्यादि । कश्मीरी पंडितों पर क्या क्या जुल्म नहीं किए गए , उन्हें उनके ही घर से भगा दिया गया ।भगाया ही नहीं बल्कि स्त्रियों के साथ रेप और बर्बरता भी किया गया , किंतु यह कठोर सत्य है कि उन्होंने अत्याचारियों की तरह हिंसा का मार्ग नहीं चुना । और परिणाम हुआ कि आज संसार में जहां भी हैं वे बहुत आर्थिक और मानसिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न हैं । किंतु वे जो हिंसक हैं उसी स्थान पर पड़े पड़े हिंसा में लीन है , कुछ तो मर गए कुछ उसी ओर हैं ।
वही महात्मा गांधी ने जो भी अहिंसा के साथ प्रयोग किया, न केवल उनके आत्म विकास में सहायक था बल्कि पूरे समाज में भी प्रभाकरी था । उनका अभ्यास था कि हिंसक प्रतिक्रिया से किसी के अंतरतम में परिवर्तन नहीं करवा सकते । अर्थात् अहिंसा ही एक ऐसा समाधान है जो स्वयं के मस्तिष्क और इंद्रियों पर नियंत्रण सिखाता है ।
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