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अधिक बोलने का पंचतत्वों पर दुष्प्रभाव

2 weeks ago By Yogi Anoop

अधिक बोलने का देह में पंचतत्वों पर दुष्प्रभाव

अधिक बोलने का देह में पाँचतत्वों पर विस्तृत प्रभाव और विश्लेषण

योग और आयुर्वेद में पंचतत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश – को जीवन और ब्रह्मांड का आधार माना गया है। प्रकृति में इन्हीं पांचों तत्वों का समावेश है । यही देह की प्रकृति में भी विद्यमान है । इन्हीं तत्वों का संतुलन हमारे शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है । यहाँ पर अधिक बोलने की आदत के कारण इन सभी पाँच, अर्थात् रेचन व साँसों में खिंचाव से इन सभी तत्वों में क्या क्या प्रभाव पड़ता है , इस पर चिंतन और विश्लेषण करेंगे । साथ साथ किस किस प्रकार से असंतुलन होने पर देह और मस्तिष्क पर किस प्रकार से दुष्प्रभाव ह सकता है , इस पर भी विचार करेंगे । 

अधिक बोलने का पृथ्वी तत्व पर दुष्प्रभाव

अधिक और तेज बोलने से शरीर में स्थित पृथ्वी तत्व में अग्नि की मात्रा बढ़ती है। इसका कारण यह है कि अधिक मात्रा में बोलने से रेचन की प्रक्रिया में निरंतर खिंचाव बना रहता है। रेचन का अभिप्राय साँसों के छोड़ने से है। अधिक और तेज़ी से बोलने से साँसों के छोड़ने की क्रिया में अधिकता और खिंचाव बढ़ता है। परिणामस्वरूप, इन्द्रियों, मस्तिष्क और पेट की मांसपेशियों में खिंचाव की एक आदत-सी पड़ जाती है।

साथ ही, इस रेचन में निरंतर असंतुलन और खिंचाव के कारण जल, वायु तथा आकाश तत्व की मात्रा कमतर होती जाती है। देह में अवश्य ही ठोस तत्व मौजूद है, किंतु उस ठोस तत्व में भी अन्य चारों तत्व मौजूद होते हैं। अन्यथा, उस ठोस तत्व के रूप, रंग और आकार में संकुचन व क्षय का होना प्रारंभ हो जाता है।

ध्यान दें:

किसी आकार (पृथ्वी तत्व या देह) में संकुचन होने का मूल अर्थ है दो सूक्ष्म कोशिकाओं के मध्य स्थित आकाश, जल और वायु तत्व का कम हो जाना। इसका परिणाम यह होता है कि कोशिकाओं में क्षय होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।

उदाहरण:

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि किसी छोटे कमरे में दो व्यक्तियों के बजाय 50 व्यक्तियों को रख दिया जाए, तो स्वाभाविक रूप से उन व्यक्तियों (ठोस तत्व) के मध्य आकाश, वायु (साँस लेने की सुविधा) की कमी हो जाएगी। इसके साथ ही आकाश और वायु में स्थित आर्द्रता (जल तत्व) की भी कमी होनी शुरू हो जाएगी। परिणामस्वरूप, उन व्यक्तियों के मध्य संघर्ष और टकराव उत्पन्न होगा।

ठीक इसी प्रकार, यदि शरीर (पृथ्वी और ठोस तत्व) में सूक्ष्मतम कोशिकाओं के मध्य की दूरी में कमी हो जाए, तो अन्य तीन तत्व (वायु, आकाश, जल) की कमी होने लगेगी। इन तीनों तत्वों की कमी होने का अर्थ है अग्नि तत्व का बढ़ना। परिणामस्वरूप, कोशिकाओं का क्षय अत्यंत शीघ्रता से प्रारंभ हो जाता है।

अंततः वाह्य रूप में मांसपेशियों में क्षय, हड्डियों में क्षय, और सोचने-समझने की शक्ति में कमी दिखने लगती है।

अधिक बोलने का जल तत्व पर दुष्प्रभाव

जल तत्व का प्राकृतिक गुण तरलता, लचीलापन, ठंडक, पोषण और अवशोषण है। यही देह में स्थित जल तत्व का मुख्य कार्य है। अत्यधिक बोलने से, चाहे वह बाह्य रूप में हो या मन ही मन किया जा रहा हो, दोनों ही स्थितियों में मस्तिष्क और देह में तापमान की वृद्धि होनी शुरू हो जाती है, और इसके परिणामस्वरूप देह में जल स्तर की कमी होने लगती है। जल तत्व की कमी के कारण न केवल माँसपेशियों में, बल्कि देह और मस्तिष्क की सूक्ष्मतम कोशिकाओं में भी ऐंठन उत्पन्न होने लगती है। इसके अलावा, अत्यधिक बोलने से इन्द्रियों में जल की मात्रा में कमी होने लगती है, जिससे आँखों, मुँह, कान और गले में सूखापन (ड्रायनेस) महसूस होने लगता है।

ध्यान दें:

देह में तापमान की वृद्धि एक सीमा के बाद केवल इन्द्रियों को ही प्रभावित नहीं करती, बल्कि यह देह और मस्तिष्क के अंदर समुचित जल स्तर को भी कम कर देती है। इसके कारण ऑक्सीजन के अवशोषण में भी कमी आनी शुरू हो जाती है। अर्थात, देह में जल और वायु (ऑक्सीजन) के स्तर में धीरे-धीरे गिरावट आने लगती है।

मैं यहाँ तक कहता हूँ कि इस कमी के कारण भोजन से मिलने वाले सभी खनिज तत्व (मिनरल्स) और पोषक तत्वों का अवशोषण भी प्रभावी ढंग से नहीं हो सकेगा।

अधिक बोलने का वायु तत्व पर दुष्प्रभाव :

 वायु तत्व (Air Element) का प्राकृतिक गुण: गति, हल्कापन है । शरीर में: श्वसन तंत्र, हृदय, और मस्तिष्क ही नहीं बल्कि सभी अंगों में यहाँ तक कि रक्त में इसका प्रवाह विद्यमान रहता है । अब यहाँ पर प्रश्न के मुताबिक़ अत्यधिक बोलने व तेज़ी से बोलने से देह में स्थित वायु तत्व पर दुष्प्रभाव की चर्चा करेंगे ।  

चूँकि बोलने की प्रक्रिया में रेचन अर्थात् साँसों के बाहर निकलने की प्रक्रिया होती ही है , किंतु जब बहुत अधिक और तेज़ी से बोलने की प्रक्रिया की जाती है तब साँसों के मिलने की गति में बहुत अधिक और बारंबार असंतुलन होता है । इतनी तीव्र गति से हो रहे असंतुलन को वह विश्राम नहीं दे पाता है । परिणामस्वरूप उसकी पांचों वायु असंतुलित होनी प्रारंभ हो जाती हैं । पांचों वायु तत्व में सबसे अधिक उदान, समान और अपान असंतुलित हो जाता है । जिसके कारण डकार , अपच , खाने ऊपर आना , रिफ्लक्स , अर्थात् जैसे बातों को फेंक रहे होते हैं वैसे ही अन्य पदार्थ भी ऊपर की तरफ़ आना शुरू हो जाता है । अब सानिया यह होती है कि साँसों को भी अंदर ले पाना मुश्किल होता है , बेचैनी और घबराहट विचारों में ठहराव की कमी का होना स्वाभाविक रूप में होने लगता है । 

अधिक बोलने का अग्नि तत्व पर दुष्प्रभाव

अग्नि तत्व का प्राकृतिक गुण ऊर्जा, पाचन शक्ति तथा तापमान है। यह तत्व शरीर के तापमान को नियमित करने में मुख्य भूमिका निभाता है। अग्नि न केवल तंत्रिका तंत्र को स्थिरता प्रदान करती है, बल्कि हृदय, जठराग्नि (डाइजेस्टिव फायर) और अन्य महत्वपूर्ण अंगों को भी ऊष्मा के माध्यम से उनकी कार्यक्षमता बनाए रखने में सहायक होती है। यही अग्नि तत्व पाचन तंत्र को सक्रिय और संतुलित रखने में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

अग्नि तत्व पर अधिक बोलने का प्रभाव

अधिक बोलने से शरीर और मन में ऊर्जा का तीव्र उपयोग होता है, जिससे अग्नि तत्व में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। इसका प्रभाव कई स्तरों पर देखा जा सकता है:

• पाचन तंत्र पर असर

• अत्यधिक बोलने से पाचन अग्नि कमजोर हो सकती है।

• यह गैस्ट्रिक समस्याएं, एसिडिटी, और पेट में जलन जैसे लक्षण उत्पन्न कर सकता है।

• तंत्रिका तंत्र और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

• अधिक बोलने से शरीर का तापमान असंतुलित हो सकता है, जो तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है।

• इससे मानसिक अशांति, चिड़चिड़ापन, और भावनात्मक अस्थिरता की समस्या बढ़ सकती है।

• शारीरिक ऊर्जा पर प्रभाव

• अग्नि तत्व ऊर्जा का स्रोत है। जब यह असंतुलित होता है, तो शरीर में थकान, कमजोरी और ऊर्जा की कमी महसूस हो सकती है।

• इसके अलावा, शरीर में जलन और सूजन जैसी समस्याएं भी बढ़ सकती हैं।

• त्वचा और अंगों पर प्रभाव

• अग्नि तत्व के असंतुलन का प्रभाव त्वचा पर भी दिखाई देता है, जैसे त्वचा में रुखापन, लालिमा, और जलन।

• आंतरिक अंगों, विशेषकर जिगर और पेट, पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है।


अधिक बोलने का आकाश तत्व पर दुष्प्रभाव

आकाश तत्व (Space Element) का प्राकृतिक गुण रिक्तता, विश्राम, शांति, शून्यता और आत्मिक अनुभव है। शरीर में:

• देह के प्रत्येक दो अंगों के मध्य रिक्त स्थान,

• मस्तिष्क में न्यूरॉन्स,

• कोशिकाओं के मध्य रिक्तता,

• विचारों के मध्य रिक्तता, शून्यता इत्यादि।

ध्यान दें, पृथ्वी तत्व, रूप और आकार के बढ़ने का अभिप्राय रिक्त स्थान का संकुचन है।

यहाँ अधिक बोलने के आकाश तत्व पर दुष्प्रभाव की चर्चा करना है। अधिक बोलने का सीधा सा अर्थ है कि मन विचारों को अत्यधिक मात्रा में पैदा कर रहा है। विचारों की संख्या इतनी बढ़ गई है और उनके बहाव इतने तीव्र हो गए हैं कि उन विचारों के मध्य दूरी कम हो गई है। इसका अर्थ है कि विचारों के मध्य आकाश व रिक्त स्थान की कमी हो चुकी है। इस रिक्तता की कमी होने से मानसिक विकार भयंकर होने प्रारंभ हो जाते हैं। 

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