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आतंकवाद क्यों पनपता है ?

2 years ago By Yogi Anoop

आतंकवाद क्यों पनपता है ? 

ध्यान दें कट्टरता का जन्म तभी होता है जब किए गए विश्वास पर चलने के बजाय मानने और मनवाने की ज़िद होने लगती है । एक व्यक्ति कहता है उसका ईश्वर महान है , वह सर्वोपरि है । उसके अलावा सब अन्य धर्मों के ईश्वर कमतर हैं । यदि ऐसा कोई नहीं मानता तो उसमें रोष पैदा होता है , उसे दूसरों को मृत्यु के घाट उतारने का मन करता है और करता भी है । 

किंतु यदि उसे उसके ईश्वर के सर्वोपरि होने का अनुभव हुआ होता तो वह ठहर चुका हुआ होता, उसमें स्थिरता आ गयी होती क्योंकि उसने उस ईश्वर के सर्वोपरि होने का अनुभव कर लिया है । यदि वह इस तथ्य का अनुभव कर चुका हुआ होता कि अन्य धर्मों के सभी ईश्वरों से ऊपर उसका की ईश्वर है तब वह गली गली घूम घूम कर उसके अनुभव का गुणगान करता । अपने अनुभवो को भिन्न भिन्न तरीक़े से जनता के सामने रखता, जैसे कबीर ने किया , मीरा ने किया , सूरदास इत्यादि ने अपने अपने अनुभवों  जनमानस के सामने प्रस्तुत किया , और करने का तरीक़ा यह बताता है कि वह उनका अनुभव है । 

किंतु ध्यान दें जहां अनुभव है ही नहीं , सिर्फ़ रटना ही कि वह महान है , और साथ साथ दूसरों को भी जबरन रटवाना है कि वह महान है तब यदि उसकी बातों को कोई नहीं मानता तब उसके अंदर हिंसा का जन्म होता है । आतंकवाद पनपता है । वह स्वयं को तो समाप्त करता ही साथ साथ समाज में भी आतंकवाद को प्रश्रय देता है । 

रटने वाले व्यक्तित्व में आत्मसंतोष की सबसे कमी देखने को मिलती है साथ साथ वह क़ौम व समाज जो रटने पर विश्वास करता है उसमें सबसे अधिक मानसिक असंतुष्टि पायी जाती है और साथ साथ जहां मानसिक असंतुष्टि भयंकर होती हैं वहाँ पर हिंसा का जन्म स्वाभाविक है । ऐसे लोगों में हिंसा को रोकना असम्भव है क्योंकि उस  क़ौम के लोग स्वयं में असंतुष्ट हैं । उनके स्व संतोष का केवल एक ही माध्यम है वह है रटना । वह है रेपटिशन । इससे मनुष्य मन की सबसे अधिक दुर्दशा होती है । 

शब्दों पर आवश्यकता से अधिक विश्वास विध्वंस करता है , इसीलिए महात्मा बुद्ध ने शब्द को प्रमाण माना ही नहीं । उन्होंने कहा कि किसी की भी मत मानो , बस स्वयं के अंदर आओ और अनुभव करो उस परम सत्य का, और स्वीकार करो । 


एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करो - यदि अल्लाह महान है और वह सर्वोपरि है , तो अन्य को मृत्यु के घाट उतारने की आवश्यकता भला क्यों है , और जहां पर सभी मुस्लिम हैं अर्थात् मुस्लिम देश है उसमें भला इतनी हिंसा और मार काट क्यों है । वहाँ  हिंसा तो समझ में आता है जहां इस्लाम के मानने वाले कम है या नहीं हैं , उन्हें जबरन हिंसा के माध्यम से अल्लाह को स्वीकार करवाया जाए । किंतु वहाँ हिंसा क्यों जहां पर इस्लाम के मानने वालों के अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं , जैसे इराक़ ईरान सीरिया अफगनिस्तान इत्यादि । सभी अपने अपनों की ही हत्या करने में जुटे हुए हैं । ऐसा भला क्यों ? 

इसके पीछे का रहस्य समझना होगा । वह रहस्य यह है कि सिर्फ़ मानना और जबरन  मनवाना । स्वयं के प्राप्ति सजगता की सबसे कमी यही है । 

ऐसा भी नहीं है कि हिंसा अन्य धर्मों में नहीं है , किंतु अन्य सभ्यताओं में वैचारिक स्वतंत्रता इतना अधिक है कि वे सूक्ष्मता में जाने के कारण सामूहिक लोगों में हिंसा की भावना का जन्म नहीं होने पाता है ।  यदि भारतीय सभ्यता में देखा जाए तो ज्ञात होता है कि एक ही धर्म में हज़ारों मत मतांतर हैं, जैसे हिंदू, बौद्ध जैन सिक्ख इत्यादि, ध्यान दें इन सभी धर्मों में भी इतने मत मतांतर हैं जो अपने मतों को फ़ाइन tune करते रहते हैं किंतु वे वैचारिक मतभेद होते हैं अनुभव के आधार पर । कुछ ऐसे वर्ग हैं जो मांस नहीं खाने पर ज़ोर देते किंतु उसी धर्म में कुछ ऐसे भी हैं जिनको मांस खाने के लिए इजाज़त दी गयी है । एक ही धर्म में कई वैचारिक परम्पराओं का पालन करने का मौक़ा दिया गया और उनके मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान से उनके व्यवहार में परिवर्तन की बात की गयी । एक व्यक्ति जब ज्ञान की ओर बढ़ता है तब उसे सात्विक भोजन करने की सलाह दी  जाती है । वह इसलिए कि उसके मार्ग में वही व्यवहार उपयुक्त है । 


  इन्हीं धर्मों में ऐसे भी समूह मिलेंगे जो यहाँ तक कि निरीश्वरवादी भी हैं और जनता के पूजनीय भी हैं । जैसे महात्मा बुद्ध एवं समस्त भारतीय दर्शनिकों ने ईश्वर की सत्ता माना ही नहीं किंतु आज भी सभी ऋषियों के नाम पर जनता में अपने बच्चों के नाम रखा जाता  है , उनको समाज में पुण्यतम माना जाता है । 

    ध्यान दें जहां सभ्यताओं का जन्म हुआ वहाँ पर व्यावहारिकता पर ज़ोर दिया गया न कि जय और पराजय पर, न कि मानने और मनवाने पर । रावण कितना ही शक्तिशाली और ज्ञानी क्यों न था किंतु कोई भी भारतीय उसे अपना आदर्श नहीं मानता । वह सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिए कि उसका व्यवहार ठीक नहीं था । यहाँ तक कि उसके छोटे भाई विभीषण को भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है क्योंकि उसने अपने बड़े भाई का सहयोग नहीं दिया । भारतीय समाज में किसी माता पिता को अपने बच्चों के नाम विभीषण नाम नहीं रखते हुए देखा होगा । कम से कम मैंने तो नहीं देखा । 

विचारों की गहराई में जितनी अधिकता होती जाती है उतना ही हिंसा का अभाव होता जाता है । क्योंकि किसी भी विषय के बारे में चिंतन की प्रक्रिया के अनंत दृष्टिकोण होते जाते हैं तब वह सूक्षतम हिस्सों की तरफ़ बढ़ता जाता है और ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है । किंतु ध्यान दें जब किसी भी विषय को जानने के लिए किसी एक ही दृष्टिकोण को माना जाएगा और अन्य को अस्वीकार कर दिया जाएगा तो स्व असंतोष का का पनपना स्वाभाविक है । और स्व असंतोष में जितनी कमी होगी उतना ही हिंसा में अधिकता होगी । 


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