मैं हमेशा इस बात पर बल देता हूँ कि इंद्रियों को शांत रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैसा कि हम जानते हैं, पाँच प्रमुख इंद्रियाँ हैं – आँख, नाक, कान, जीभ, और त्वचा। इनमें से सबसे अधिक उपयोग और दुरुपयोग की जाने वाली इंद्रिय आँख है। मेरे अनुभव में, आँखों के माध्यम से सबसे अधिक क्रियाएँ होती हैं। मन इन्हीं आँखों से चित्र और चल-चित्र बनाता है, और इन्हीं की स्मृतियाँ सबसे अधिक होती हैं। मन में विचारों की उत्पत्ति में भी आँखों का योगदान अत्यधिक है।
यदि गहराई से देखें, तो पाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति दिन में 15-16 घंटे कार्य करता है, तो वह सोने से पहले तक अपनी आँखों का ही उपयोग करता रहता है। यहाँ तक कि कार्य करते समय भी उसकी कल्पनाओं में आँखें सक्रिय रहती हैं। यानी कि काम के दौरान जो स्वप्न देखे जा रहे होते हैं, उनमें भी आँखें सक्रिय होती हैं। और नींद में स्वप्न के समय भी आँखें अति सक्रिय रहती हैं। इस दृष्टि से देखें तो, कुछ ही पलों की गहरी निद्रा के अलावा, आँखें हमेशा अति सक्रिय अवस्था में रहती हैं।
आँखें ऐसी इंद्रिय हैं जो हमें शारीरिक और मानसिक संतुलन प्रदान करती हैं। लेकिन यदि इन्हें अति सक्रिय कर थका दिया जाए, तो न केवल शारीरिक संतुलन बिगड़ता है बल्कि मानसिक संतुलन भी प्रभावित होता है।
आँखों की अति सक्रियता में उनकी पुतलियाँ प्रायः नीचे की ओर होती हैं। मेरे अनुभव में, आँखों की पुतलियों का लगातार नीचे की ओर रहना मस्तिष्क के लिए हानिकारक हो सकता है। यह स्थिति आँखों की मांसपेशियों में जकड़न बढ़ाती है, जिससे लचीलेपन की कमी होने लगती है। इसका परिणाम यह होता है कि आँखों में थकान का अनुभव होता है, जिससे मस्तिष्क की कार्यक्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह समस्या धीरे-धीरे गंभीर शारीरिक और मानसिक विकारों का कारण बन सकती है। यद्यपि शुरुआत में इसके दुष्प्रभाव नहीं दिखते, परंतु कुछ वर्षों में यह स्थिति गंभीर हो जाती है।
प्राकृतिक दृष्टिकोण से देखें, तो जब व्यक्ति बिस्तर पर लेटता है, तो उसकी आँखें स्वतः ही ऊपर की ओर चली जाती हैं। मैंने देखा है कि जब रीढ़ और मस्तिष्क के पिछले हिस्से में रक्त और ऑक्सीजन का संचार नियमित रूप से बढ़ता है, तो मस्तिष्क को आराम मिलता है और आँखें स्वतः ऊपर की ओर हो जाती हैं। आँखों का ऊपर की ओर जाना मस्तिष्क और शरीर के पिछले हिस्से में बढ़े हुए रक्त संचार का प्रतीक है। इस अवस्था में विचार भी शांत हो जाते हैं, और आँखों का ऊपर की ओर जाना स्वाभाविक और सहज हो जाता है।
इसी विचार को ध्यान में रखते हुए, हठ और राज योगियों ने आँखों की पुतलियों को ऊपर की ओर ले जाने का अभ्यास आरंभ किया। उन्होंने सोचा कि यदि गहरी निद्रा में आँखें ऊपर की ओर जाती हैं, तो जाग्रत अवस्था में भी इसे किसी विशेष क्रिया के माध्यम से किया जा सकता है। इसी उद्देश्य से ऋषियों ने इस अभ्यास को “सांभवी मुद्रा” नाम दिया।
योगियों के अनुसार, सांभवी मुद्रा के माध्यम से आँखों की अतिसक्रियता को नियंत्रित और स्थिर किया जा सकता है। यह एक प्रकार का स्थूल ध्यान है, जिसमें भौतिक रूप से आँखों और उनकी मांसपेशियों का अभ्यास कराया जाता है। इसमें किसी सुखासन की ध्यान मुद्रा में बैठकर आँखों की पुतलियों को ऊपर की ओर ले जाना होता है और उन्हें कुछ समय के लिए वहीं रोकने का अभ्यास किया जाता है। इससे आँखों के ऊपरी मांसपेशियों में जो तनाव होता है, उसमें लचीलापन आता है।
इस अभ्यास के माध्यम से आँखों की अति सक्रियता को नियंत्रित किया जा सकता है। दैनिक दिनचर्या में भी इस अभ्यास से आँखों में स्थिरता और संतुलन का अनुभव होता है। इसी कारण से सांभवी मुद्रा अत्यंत प्रसिद्ध हुई।
लेकिन ध्यान दें, इस प्रकार के अभ्यास विशेषकर जो ज्ञानेन्द्रियों पर आधारित है, उसे किसी अनुभवी गुरु के संरक्षण में ही करना चाहिए। अन्यथा, इस अभ्यास से कई दोष उत्पन्न हो सकते हैं। यद्यपि मेरे अनुभव में लगभग ५० फीसदी अभ्यासी इसके वैज्ञानिकता को समझे बिना अभ्यास करके हानि ही उठता है ।
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