सामान्यतः श्वास प्रस्वास की स्वाभाविक गति मे विच्छेद को ही प्राणायाम कहा जाता है । किंतु महर्षि पतंजलि ने ज्ञानात्मक प्राणायाम की भी चर्चा की है । उनके अनुसार यह सूक्ष्म प्राणायाम तब घटित होता है जब बाह्य और अंतर विषयों का त्याग कर दिया जाता है । विषयों के त्याग का अर्थ है वैचारिक दोषों का बाहर निकल जाना अर्थात् स्थूल रूप में साँसों का बाहर निकल जाना । जब त्याग के स्वभाव को बढ़ाया जाता है तब स्वाँस के साथ मल का बाहर निकलना स्वतः ही अधिक हो जाता है । इस अवस्था में शरीर के सभी अंग अपने अपने मल बाहर की ओर स्वतः ही निकालने लगते हैं ।
और साधक जब व्यावहारिक जीवन का पालन करने के लिए कुछ विषयों का ग्रहण करता हैं तब प्राण का अंदर आना बहुत धीरे धीरे होता है , उस समय फेफड़ों का मूव्मेंट बहुत ही धीरे धीरे होता है । इस धीरेपन से फेफड़े प्राण को अंदर बहुत अधिक मात्रा में संग्रह के साथ साथ कुम्भक भी करते है ।
यदि सूक्ष्मता से अद्धयन किया जाय तो विचारों का स्वाँस से बहुत गहरा सम्बन्ध होता है जिसे व्यावहारिक जीवन में भी आसानी से अनुभव किया जा सकता है ।
जैसे एक सोते हुए व्यक्ति की साँसों में तेज़ी दिखने से यह सिद्ध हो जाता है कि वह स्वप्न देख रहा है । उसके मन में कोई न कोई ऐसे दृश्य चलते है जिससे उसकी साँसों में वृद्धि हो जाती है । निद्रा में देह स्थिर होता है, उस समय स्वाँस में होने वाले हलचल को आसानी से जाना जा सकता है किंतु जागृत अवस्था में व्यक्ति के अंदर वैचारिक प्रतिक्रियाओं का असर साँसों पर जो भी पड़ता है उसका आभाष उस व्यक्ति को नहीं हो पाता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि जागृत अवस्था में शरीर और इंद्रियां व्यावहारिक कार्यों में व्यस्त होते हैं ।
जैसे जैसे विचार और भावों में उतार चढ़ाव दिखता है वैसे वैसे साँसों में भी परिवर्तन दिखता है । यदि मन में बहुत अधिक अस्थिरता दिखती है तब शरीर और मस्तिष्क के कई सूक्ष्म अंग प्रभावित होते हैं । साथ साथ उनके अंदर भी उसी प्रकार से अस्थिरता दिखने लगती है ।
जैसे क्रोध के समय श्वांश की गति का तीव्र हो जाना । कामुक विचार के समय साँसों की गति में बहुत तीव्र हो जाना इत्यादि ।कहने का मूल अर्थ है कि मन के अंदर सभी विचारों के चलने का कहीं न कहीं प्रतिक्रिया स्वाँस प्रस्वाँस पर पड़ता है । ऐसा इसलिए कि विचारों का ग्रंथियों और स्वाँस प्रस्वाँस से गहन सम्बन्ध है ।
बिलकुल उसी प्रकार जब विचारों को किसी विषय पर एकाग्र किया जाता है अर्थात् अनेक विचारों को हटा कर किसी एक विषय पर एकाग्र कर दिया जाता है तब फेफड़े साँसों को बहुत गहराई से भरने लगते हैं । उसके अंदर कुम्भक क्रिया भी स्वाभाविक रूप से होने लगती है । इस अवस्था में होने वाला प्राणायाम बहुत ही उच्च अवस्था वाला होता है । इसमें मन किसी एक विषयपर इतना केंद्रित होता है कि उसके मस्तिष्क का वह विशेष भाग साँसों को स्वतः अपने अंदर अधिक भरने लगता है । ध्यान से देखा अजय तो उस एकाग्रता के काल में साँसों के अंदर बहुत गहराई दिखने लगती है ।
जैसे आँखों में फँसी गंदगी को निकालते समय साँसों में गहराई स्वतः ही आ जाती है ।
उसी तरह किसी एक विषय पर ध्यान के एकाग्र होने पर साँसों में गहराई स्वतः ही आ जाती है ।
थोड़े वर्षों के ध्यान के अभ्यास के बाद साधक जब उस अंतिम विचार को भी त्याग देता है तब फेफड़े ही नहीं बल्कि देह के समस्त अंग अपने मूल स्वभाव में शांत स्थित होकर कार्य करने लगते हैं, इसी को महर्षि पतंजलि ने ज्ञानात्मक प्राणायाम कहा । इसे आध्यात्मिक प्राणायाम भी कह सकते हैं ।
वृत्तियों के आने जाने का अवलोकन करते रहने का प्रयास करें ।
इंद्रियों को ढीला शांत बंद करके अपने अंदर चलने वाले दृश्यों को के आने जाने को देखते रहना । जाने वाली वृत्तियों को जाने दो और आने वाली को आने दो । थोड़े ही समय के बाद वृत्तियों में ठहराव आ जाएगा और साँसों में भी स्थिरता आ जाएगी ।
अपनी साँसों का भी अवलोकन कर सकते हो , इससे वृत्तियों में ठहराव आता है ।
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