जब युद्ध में लड़ रहे होते हैं तो आप मज़ाक़ नहीं करते, एक सर्जन सर्जरी करते समय क्या मज़ाक़ करेगा या मज़ाक़ करते हुए सर्जरी कर सकता है । कुछ वैसे ही जब जीवन के गम्भीर विषयों पर एक गुरु जब चर्चा करता है तब मज़ाक़ सम्भव नहीं है । और वह भी आध्यात्म जैसा गम्भीर विषय जो वाह्य दृश्य जगत की नहीं बल्कि बल्कि दृष्टा जगत की बात कर रहा हो ।
मुझसे बहुत सारे लोग कहते हैं कि आप अपने आध्यात्मिक चर्चा में थोड़ा humor डाला करें तो और अच्छा रहेगा । ह्यूमर (humour) का अर्थ यहाँ पर थोड़े से मज़ाक़ से है जिससे सामान्य साधकों को हंसी मज़ाक़ हो जाए ।
मैं प्रत्युत्तर में हमेशा कहता हूँ कि ऐसा सम्भव नहीं, वह इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि मैं कहानीकार नहीं हूँ, मैं किसी को कोई कहानी नहीं बता रहा हूँ , मैं कोई आकार नहीं बनाता , मैं तो मन में बने हुए आकारों को ख़त्म करने की बात करता हूँ, उसी पर मेरा अभ्यास है । मैं किसी कहानी की बात नहीं करता हूँ क्योंकि कहानियाँ बच्चों के लिए होती है , या उन लोगों के लिए जो निरक्षर है । युवा व वयस्क व्यक्ति जीवन के रहस्यों को कहानियों से न कभी सीख पाया है और न ही सीख पाएगा ।
उसको तो अब वर्तमान से ही सीखना है । यदि वहाँ पर नहीं सीखता तो जीवन के समस्त रहस्यों से वंचित हो जाएगा ।
कुछ गुरुओं का मानना है कि हंसी और मज़ाक़ में किसी भी बात को आसानी से subconscious मन में डाला जा सकता है । सम्भवतः उनका ऐसा मानना होता है कि जीवन को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए, गम्भीरता से लेने वाले स्वभाव के व्यक्तियों को अवसाद के होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं ।
किंतु आंशिक रूप से सत्य है, मेरा अनुभव कहता है कि जीवन को जब तक गम्भीरता से नहीं लिया जाता तब तक अवचेतन में कोई भी बात जा नहीं सकती । समस्या यह है कि अच्छी बातों को व्यक्ति हंसी में लेता है और गम्भीर और समस्याग्रस्त बातों में भय को गम्भीरता से लेता है । इसीलिए व्यक्ति सत्संग चाहे जितना कर ले समस्या घटने के बजाय बढ़ती ही है । क्योंकि जो तत्व गम्भीरता से ले रहा है वही उसके स्वभाव में दिखने लगता है ।
वर्तमान में जीने के लिए प्रत्येक बातों को बहुत गम्भीरता से लेना चाहिए ।वह इसलिए कि नकारात्मक बातों का सामना भी व्यक्ति को करना चाहिए , कुछ ही वर्षों में अनुभव के बाद किस बात को गम्भीरता से लेना है और किस बात को गम्भीरता से नहीं लेना है, यह स्वतः ही सीख जाता है । कहने का मूल अर्थ है कि वर्तमान का अनुभव ही सिखाता विचारों से प्रबंधन सिखाता है ।
इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि कहानियों और हँसीं मज़ाक़ की अपनी सीमा है, वह अवहय होना चाहिए किंतु जीवन के रहस्यों को जानने के स्वयं में गम्भीरता आवश्यक है । तभी दृश्यों को छोड़कर दृष्टा को समझने में कामयाबी मिल पाएगी ।
सत्य तो यह है कि मन दृश्यों और कहानियों व आकारों से ही तो परेशान है, इसी में सत्य असत्य ढूँढ रहा है । इसी में सुख-दुःख ढूँढ रहा है किंतु सत्य है कि जब आप किसी ऐसे अदृश्य चेतन शक्ति के बारे चिंतन कर रहे हों तो बहुत शार्प एकाग्रता की आवश्यकता होती है । एकाग्रता की गम्भीरता में जाने से इंद्रियाँ सुख दुःख से परे होने लगती हैं । सत्य यह है कि एकाग्रता ही इतनी गहरी शांति देता है कि उसका मापन इंद्रिय सुख से नहीं हो सकता है ।
एक साधक जब किसी गुरु के पास मानसिक व आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान के लिए जाता है तो वह इंद्रिय सुख के लिए नहीं जाता, न ही थोड़ी देर के लिए हंसी मज़ाक़ के लिए जाता है, वह तो उस चर्चा के लिए जाता है जिसमें कुछ समाधान निकले जो स्थायी हो । मेरे पास बहुत लोग ऐसे-ऐसे प्रश्न लेकर आते हैं जिसका कोई अर्थ ही नहीं होता है । वे आध्यात्मिक समस्या से ग्रस्त नहीं होते है बल्कि वे उसका ढोंग कर रहे होते हैं । वे सिर्फ़ इसलिए आते हैं कि यहाँ भी देख लेते हैं कि ये गुरु कैसे हैं ।
वास्तव में एक शिष्य गुरु के पास इसलिए आता है कि वह यह जाने कि गुरु ने अपनी आध्यात्मिक समस्याओं का निराकरण कैसे किया , जब वह अपने अनुभव को बताना शुरू करता तो उसमें गम्भीरता बहुत अधिक होती है । उसमें बहुत अधिक कहानियों की सम्भावनाएँ नहीं रह जाति हैं ।
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